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फरमाते रहे। अंतिम एक प्रश्न व्यक्तिगत आक्षेप करने वाला भी आया। प्रश्नकर्ता ने पूछा-क्या आपने भी कभी किसी को विनीत कहा है ?
भाईजी महाराज ने विनोद में बात टालते हुए कहा- मेरे कहने से ही यदि कोई विनीत बन जाता हो, तो लो मैं तुम्हें 'परम-विनीत' का तुकमा दे दूं, पर मेरे कहने से कोई विनीत या अविनीत नहीं होता। वह तो होता है अपने व्यवहारों से, आचरणों से, आत्म-संवेदनाओं से । विनीत अविनीत की कसौटी तो है जनता। तुम कितने विनीत हो ,यह पूछो इस मजलिस से, अभी पता चल जाएगा है।
'म्हारै कहणे स्यूं हुवै, कद विनीत अविनीत । (इं) मजलिस ने पूछो जरा, तुम कितनेक विनीत ॥'
सस्मरण २६३
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