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________________ ४७ घाव से घृणा वि० सं० २०१७ माघ कृष्णा ६ लावा सरदारगढ़ (मेवाड़) में भाईजी महाराज आहार करने विराजे थे। हम कुछ मुनि आसपास बैठे थे । मुनिश्री को अकेले भोजन करना पसन्द नहीं था । जब तक उनके अगल-बगल में दो-चार सन्त नहीं होते, उन्हें खाना अटपटा-सा लगता । वे औरों को खिलाकर बहुत राजी रहते । अपने भोजन में से जब तक वे दो-पांच कवल (ग्रास) औरों को नहीं दे देते तब तक उन्हें चैन नहीं पड़ता, भोजन नहीं भाता। आवाजें दे देकर मुनियों को बुलाते । बुलावा भेज-भेज कर आमंत्रित करते । जो कोई मेरे जैसा संकोची या आदतन 'नो' कह देता तो उसे अव्यावहारिकता का तुकमा मिलता। मुनि बालचंदजी (गंगाशहर) या मुनि हीरालालजी (बीदासर) जैसे कभी-कधी उपवास पचख कर भाईजी महाराज के पास आते तो अक्सर मुनिश्री फरमाते-'कुमाणसां! म्हारै कनै इं टेम उपवास पचख'र आया मत करो, मन्ने को सुहावै नी।' कभी-कभी मुनि दुलहराजजी विनोद करते आते और कहते-'आज मैं प्रतिज्ञा करके आया हूं, आपके यहां से कोई चीज नहीं खाऊंगा। उन्हें भी दो-चार कड़वीमीठी सुननी पड़ती। पर उनकी प्रतिज्ञा तो विनोदी होती। दो-चार मिनट भाईजी महाराज मनुहारें करते और उनकी प्रतिज्ञा पूरी हो जाती । सेवाभावी मुनिश्री बड़े सरसजीवी व्यक्ति थे। इसीलिए तो आज भी सन्तों को आहार के समय भाईजी महाराज की याद खटकती है। उस दिन सन्तों की मण्डली से घिरे भाईजी महाराज आहार कर रहे थे कि इतने में मुनि ताराचंदजी (चूरू) पहुंचे। उनके दायें हाथ की तर्जनी के नख की जड़ में फोड़ा था । फोड़ा फूट तो गया, पर फूटकर भी विस्तार खा गया। उफनकर मांस बाहर आ गया। अंगुली दुगुनी हो गयी । उन्होंने भाईजी महाराज को वन्दना कर हाथ दिखाते हुए कहा-मोटा पुरुषां ! अंगुली की जड़ में एक ओर फूणसी संस्मरण २८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003057
Book TitleAasis
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages372
LanguageMaravadi, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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