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उठी है, अब के करस्यूं ?
हाथ के उस विकृत घाव को देखते ही मुझे घृणा-सी हुई । ग्लानि-भरी सिकुड़न के साथ मैंने कहा-'भाई ! जरा थोड़ी देर के लिए तुम इस घाव को ढक दो, आराम से बैठो, अभी आहार हो जाता है, बाद में दिखाना। भले आदमी ! यह भी कोई घाव दिखाने का समय है ?
यद्यपि मैंने शिष्टता से कहा था, पर मेरा यह कहना भाईजी महाराज को बुरा लगा। उन्होंने तुरन्त खाना बन्द कर दिया। पास पड़ी दूसरी पात्री में चुल्लू कर उठ खड़े हुए।
पास बैठे सभी सन्त सन्न थे, यह क्या ? पर मैं तो जानता था, मुनिश्री के स्वभाव को। मैं बिना कुछ बोले शूल, रुई, मलहम और पट्टी ले आया। मुनि मणिलाल को गरम पानी और डिटोल लेने भेजा। आहार बीच में ही धरा रहा। पहले उनका घाव धोया, साफ-सफाई की। थोड़ा-सा शूल का सहारा दे घाव को खोला कि सघन पीब बह पड़ी। कोई आधा छटांक मवाद निकली होगी । मलहमपट्टी कर हमने हाथ धोये । अब तक मुनिश्री मन ही मन गुनगुनाते रहे । ज्यों ही पुनः आहार की मंडली जुड़ी कि भाईजी महाराज ने फरमाया
घृणा न करणी घाव स्यूं, रोगी स्यूं अनुराग । सागर ! सेवा संत री, मिले पुरबले भाग ।।
२१२ आसीस
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