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बीमार को पहले
पौष का महीना था। बहिर-विहारी सन्तों का एक मेला । सहज समागम । हम सब एक-दूसरे को देखकर प्रफुल्लित थे। सैकड़ों ठाणों की भीड़ में स्वस्थ-अस्वस्थ, रोगी-ग्लानी, बाल-वृद्ध सभी तरह के होते हैं । भाईजी महाराज सबके केन्द्र थे। अस्वस्थ उनसे स्वास्थ्य का परामर्श लेते, रोगी दवा-पानी, पथ्य-परहेज पूछते, ग्लान अशक्त स्वयं के निर्वाह की याचना करते, बाल मुनि स्नेह लेने आते तो वृद्ध स्थविर आदर भावना से खिचे पहुंचते। यही था भाईजी महाराज की जन-प्रियता का सूत्रवे सबके थे। सब उनके थे। सेवा के अवसर पर उनकी दृष्टि में अपने-पराये का भेद नहीं रहता । बहुत बार तो निकटवर्ती-अपने साथ रहने वालों से भी औरों पर विशेष ध्यान दिया जाता। ___ मुनि अगरचंदजी स्वामी उन दिनों रक्त-विकार की व्याधि से पीड़ित थे। उनके लिए पथ्य-दूध और रोटी के अतिरिक्त सब कुछ बंद था । बहुत सारे ठाणों (सन्त-सतियों) का सहवास, गांव की सीमित गोचरी, उन्हें दूध उपलब्ध नहीं हुआ। उनके सहवर्ती मुनि चौथमलजी स्वामी (सरादार शहर) खाली पात्री लेकर आये। पीठ पीछे छुपाई पात्री देख भाईजी महाराज ने फरमाया-'चोथू ! कियां आयो भाया ! के चाहिजै है ? बोल ।'
उस समय भाईजी महाराज आहार करने विराजे ही थे। चौथमलजी स्वामी जरा सकुचाये। उन्होंने दबी आवाज में कहा--नहीं-नहीं, देखता था, महाराज ! दूध आया हो तो उन्हें आहार करा देता । आज हमारे यहां दूध नहीं आया।
सेवाभावी मुनिश्री ने सन्त पृथ्वीराजजी से पूछा-पी) । पय आयो है के ?
उन्होंने सिर हिलाते हुए उत्तर दिया-मत्थेण वन्दामि ! दूध तो आज कहीं गोचरी में नहीं धामा।
इतने में आहार लेकर मैं आया। भाईजी महाराज के लिए मैं आचार्यप्रवर के
संस्मरण २६३
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