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________________ ५६ यह कैसी बुद्धिमानी २०१६ चैत्र कृष्णा चतुर्दशी को आचार्यप्रवर रशमी से विहार कर मान्यास पधार रहे थे ।। मुनि मांगीलाल जी सरदारशहर वाले आगे-आगे चल रहे थे। उनकी चाल यों ही ढीली-ढाली थी। तपत और मेवाड़ी रास्ता, भंडोपकरणों का अत्यधिक बोझ और शरीर भारी, वे परेशान हो, एक स्थान पर बैठ गए। भाईजी महाराज दयालु हैं। किसी संत पर वे यों ही दयालु हो जाया करते। फिर असहाय और कमजोर पर तो वे प्राय: पिघल उठते थे। मुनि मांगीलाल जी शरीर से भारी, अपस, उट्ठाणा क्रिया में शिथिल, आलसी पर थे बहुश्रुत । बुद्धि तीव्र और याददास्त बजराट है । सात आगम उन्हें कंठस्थ हैं। हां, यदि थोड़ासा प्रमाद नहीं होता तो क्या कहना? वे अपने आपको 'मधुर' कहते थे। दोनों बाप-बेटों ने साथ दीक्षा ली थी। उनके पिताजी का नाम फूसराज जी स्वामी था। वे भी आगम-ज्ञाता, तत्त्वदर्शी सन्त थे। किसी साधु को बैठा देख दूर से भाईजी महाराज ने पूछा--यह कौन बैठा है ? सन्तों ने कहा-आलस-निकाय मधुर मुनि । वे काम करने में ढीले थे। प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण भी सबके बाद पूरा होता था । मन के सरल थे पर आलस के कारण सन्त उन्हें आलस-निकाय कह देते। श्री भाईजी महाराज उस सन्त की ओर मुड़कर बोले-ना भाई ! ऐसा नहीं कहा करते। यह तो बहुश्रुत है। 'बहुश्रुत की आशातन मत करो।' भाईजी महाराज को नजदीक आते देख मुनि मांगीलाल जी स्वामी उठे। मुनिश्री ने हमदर्दी दिखायी। उनसे बोझ मांगा। थक गया क्या मांगू? ला! वजन दे दे, आराम से चला जाएगा। उनका झोलका बहुत भारी था, हाथ में उठाया तो पत्थर जैसा लगा। ठिकाने आकर मुनि हीरालाल जी से भाईजी महाराज ने फरमायाहीरा ! इसका बोझा कम कर दो भाई ! हम कुछ सन्त बैठे। उनकी नेश्राय का संस्मरण २६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003057
Book TitleAasis
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages372
LanguageMaravadi, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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