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दोहा
'चम्पक' पावन पावणां, परमेसर रो रूप । मोत्यां मूंघा मोवन्यां! गिण मत छाया धूप ॥१॥
'चम्पक' भावी जोग भल, मोको मिल्यो महान । मांग्या मिले न मोवन्या ! मेह, मोत, मेहमान ॥२॥
पलक बिछादै पावडां, भूल मूल तिस-भूख । सुवरण-मोको मोवन्या ! 'चम्पक' तूं मत चूक ।।३।।
सागर ! समता री सरस, परिणति हुवै प्रवीण । 'चम्पक' चेतन चुप रहै, क्षमता मत कर क्षीण ॥४॥
बराबरीकै स्यूं भिड़ण, 'चम्पक' चहिजै चोज । मरयै हुयै नै मारणौ, मै मरदां के मोज ॥५॥
आहमी-साहमी उतरती, औरां री कर आप। चढ़ती 'चम्पक' जो चहे, (तो) स्वयं सूंफड़ा साफ ॥६॥
उद्यम रो अधिकार है, टलण सकै कद टेम।। होसी जो होगी हुसी, 'चम्पक' खेम अखेम ॥७॥ चुगली खा डूब चुगल, बांध पाप की पोट । 'चम्पक' उठा न गोट तूं , सागर ! हिला न होठ ॥८॥
'चम्पा' चकमो दै मती, भीतरलो टटोल । सागर ! अपणो दोष तूं, ओरां पर मत ढोल ॥६॥
फुटकर फूल १३३
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