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'चम्पक' सागर ! तूं सुघड़, मत कर गोल-मटोल । ठोस बात ठीमर करै, छोरा ठट्ठा-ठोल ॥१०॥
अठी बठी रा अणघड्या, तूं फहीड़ मत फेंक । ठीमरपण री ठीकसर, 'चम्पक' लागै नेक ॥११॥
बुद्धिहीण बिह्वल बिकल, अकल बिना रा ऊंठ। 'चम्पक' बिगड़ी चासणी, टूटै नमें न ठूठ ।।१२।।
ठबको लाग्यां ठीकरी, कलशो काच कथीर । 'चम्पक' खमसी चोट नै, हीरो-हेम-हमीर ।।१३।।
बचन-बचन मै आन्तरो, पीढ्यां रो पड़ ज्याय । एक बचन मै मिलण रो, 'चम्पक' उपजे चाव ॥१४॥
एक बचन घाधां भरै, घाव घालदै एक। अमृत-जहर जबान मै, 'चम्पक' जगा विवेक ।।१५।
लाग्योडी पर लंण सो, एक बचन दुख देह । एक बचन दै सांत्वना, 'चम्पक' उमड़े नेह ॥१६॥
आग ऊपड़े बचन स्यूं, बचन बणे रस-धार। शत्रु-मित्र बाणी सुगण ! चम्पक' जरा विचार ।।१७।।
निरवद बोल्यां निर्जरा, सावद बन्ध विषाद । एक बचन स्वाध्याय है, 'चम्पक' इक बकबाद ॥१८॥
अर्थशून्य अविवेक वच, अनरथ कर अयथार्थ । निर्जरार्थ निरवद बदै 'चम्पक' बचन यथार्थ ।।१६।।
'चम्पक' झुककर जुगत सर, जडियो जड़े जड़ाव । जमै जग्यासर खटोखट (तो) बाणी बण बणाव ।।२०॥
सागर ! चतुर चलाक मै, अन्तर 'चम्पक' एक । चाल कुचाल चलाक की, विकसित चतुर विवेक ॥२१॥
१३४ आसीस
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