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सावधानी का संकेत
सर्व सम्पन्न ओसवाल समाज में श्रीसंघ और विलायती का एक विवाद बंगाल से उठा । इन्द्र बाबू दुधोड़िया विलायत जाकर आये । समाज ने उन्हें जाति- बहिष्कृत किया। सबसे पहली पंचायत वि० सं० १९४६ मिगसर शुक्ला १० दिनांक २-१२-१८८६ कलकत्ता में बैठी । विवाद ने तूल पकड़ा। भाई-भाई बंट गये । कितने सगपन टूटे। कितनी बेटियां मां-बाप के स्नेह से वंचित हुईं। गांव-गांव और घर-घर में दो पक्ष खड़े हो गये । आपसी खान-पान, लेन-देन और बेटी - व्यवहार बंद हो गया ।
श्री भाईजी महाराज के दादा राजरूपजी खटेड़ ने उसी प्रसंग पर नौकरी छोड़ी । वे नेमचन्द हरखचन्द दुधोड़िया - सिराजगंज के करतम-धरता मुनीम थे । राजरूपजी श्रीसंघी थे और मालिक दुधोड़िया जी विलायती जाति - बहिष्कृत |
वही झगड़ा थली में देशी - विलायती के नाम से उठा । चूरू उसका मुख - केन्द्र बना । सुराणा शुभकरण जी (तेजपाल वृद्धीचंद ) की बारात अजमेर लोढ़ों के यहां गयी । वहां राजा विजयसिंहजी ( विलायती ) पहुंचे । एक ओर चूरू के कोठारी दूसरी ओर सुराणा, दोनों ही दिग्गज । देशी - विलायती के नाम पर परचेबाजी चली । कितने विवाह मंडप उजड़े। कितने बिरादरी के भोज बिगड़े । बढ़ते-बढ़ते उस विवाद ने धर्म-संघ पर भी हाथ डालने का असफल प्रयत्न किया । श्रावक समाज के दो गुट धीरे-धीरे साधु-समाज को भी घेरने लगे । भीतर ही भीतर कुछ साधु देशी और कुछ विलायती माने जा रहे थे । उनका आपसी वार्तालाप भी एकदूसरे पक्ष को हीन श्रेष्ठ कहते नहीं चूक रहा था । यद्यपि आचार्य कालूगणी जी बहुत सजग और निष्पक्ष नीति से माध्यस्थ भाव बरतते रहे । स्थिति पर उनकी अच्छी नजर थी।
वि० सं० १९८६ पूज्य प्रवर राजलदेसर पधारे । व्याख्यान के बाद
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