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________________ वींजराजजी वैद गुरुदेव की सेवा में पहुंचे। उन्होंने बड़े विनय से निवेदन कियाखमा घणी ! क्या सन्तों को भी देशी-विलायती के झंझट में पड़ना चाहिए? मैं शिकायत नहीं, संघीयता के नाते ध्यान खींचना चाहता हूं। अमुक अमुक साधु अमुक-अमुक पार्टी का पक्ष ले रहे हैं। कुछ मुनिजनों के पास परस्पर विरोधी छापे–पम्पलेट भी हैं। कहीं यह विष-बेल का अंकुर अहित न कर दे। संत गोचरी गये हुए थे। मुनि शिवराज जी स्वामी (कोटवाल) को आदेश मिला। संतो के पुढे मंगवाये गये। निरीक्षण हुआ। बात सही निकली। पूज्य कालूगणी का रंग बदला । ज्यों-ज्यों संत गोचरी से आते गये, एक-एक कर पेशियां पड़ीं। उपालंभ तो मिलना ही था । पैम्पलेट रखने का प्रायश्चित्त दिया गया। मुख्यरूप से मुनि सकतमल जी, कानमल जी स्वामी, सोहनलाल जी स्वामी (चूरू) आदि सन्त उस में पात्र थे। उसी लपेट में श्री भाईजी महाराज भी आये । पूठे से एक छापा निकला। सबके बाद श्री कालूगणी ने फरमाया-चम्पा ! तू कहां उलझा? भाई ! यह काम हमारा नहीं है । आगे से सावधान रहना ! जाओ। __ इस सारी घटना को श्री भाईजी महाराज ने एक पद्य के माध्यम से हमें बताया 'किती कहूं कालू कपा, कृत-मुख करुणा-धाम। चम्पा ! तूं उलझ्यो कठे ?, (ओ) नहीं आपणों काम।' संस्मरण २३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003057
Book TitleAasis
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages372
LanguageMaravadi, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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