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एकठ रो एकन्त, 'चम्पक' सिक्को रह सिरे । भिन्न-भिन्न भाकन्त, सिट भी नहिं सीझै श्रमण !॥२१॥
एकल स्यूं एकन्त, बात-विगत 'चम्पक' वरज । अनरथ करै अनन्त, सर्प-दंश सरिखो श्रमण !।२२।।
एडी माहे ऐंठ, ‘चम्पक' औरत री अकल । चलगत चेन्हा चंठ, सावधान परखै श्रमण !।२३।।
खतम करै सब खेल, 'चम्पक' खारो बोलणो । रच ज्यावै रंग रेल, सावल बोल्यां स्यूं श्रमण !।२४॥
खरो गणीजे खेंट, 'चम्पक' खटको टेंट मै। उलटो चाल्यां रेठ, सूकै सै क्याऱ्या श्रमण !।२५।।
खावै चतुर चरवार, अंग चंग 'चम्पक' लगे। मिनख मान मनवार, कियां भूलज्यावै श्रमण !।२६।।
खुद मनचायो खार, हाथ पेट पर फेरले । 'चम्पक' भाई भार, स्वार्थी जन समझै श्रमण !॥२७॥
गर्भ ज्ञान रै गेल, मेह मै बिजली मेख है। 'चम्पक' धुंओं धकेल, दीयो कद शोभै श्रमण !॥२८॥
घण रो घणोज घेर, गण-गौरव 'चम्पक' गजब । गुणकर अभिमत गेर, सगलां रै सागै श्रमण !।२६॥
छिप-छिप देखै छिन्द्र, 'चम्पक' एकल खोरड़ो। घट कद्र हे भद्र !, ओछी संगत स्यूं श्रमण !।३०॥
छाण-बीण री छ्ट, 'चम्पक' छौले छतका। टुकड़ा ज्यावै टूट, सार नीसरै के ? श्रमण !।३१।।
जीभ झरै रे! जीभ, 'चम्पक' बोल बिगाड़ मत । तोड़ बगावै तीब, सागै के चालै ? श्रमण !॥३२॥
श्रमण-बावनी ८१
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