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एक व्यवस्था कार्यकर्ता से बात कर मुनिश्री ने उन्हें धीरज तथा सहानुभूति से काम लेने को कहा। उसने उसे उलटा माना । वे महाशय उबल पड़े। बोलते-बोलते यहां तक कह गये---आप लोगों का हस्तक्षेप ही तो सारा काम बिगाड़ता है। यात्रियों को आप सिर चढ़ा रहे हो । मैं जानता हूं, आप अमुक-अमुक व्यक्तियों का पक्ष ले रहे हैं। वे हमारी सारी व्यवस्था बिगाड़ने पर तुले हुए हैं।
यात्रीगण कह रहे थे-भाईजी महाराज ! आप पधारकर मुलायजा फरमाओ। ८-१० फीट के कमरे में हम ५० आदमियों का सामान भी नहीं रखा जाता। हम सारे बाहर पड़े हैं। नापसन्द स्थान, इतना भारी किराया और ऊपर से इतनी हुकूमत । संतोष कर तो लें, पर हो कैसे ? कहीं हद भी तो होती है। ये जब आपसे यों बोलते हैं, हमारी तो चिकारी ही क्या है ? मेवाड़ी भाई की आंखें गीली हो गयीं। ___ भाईजी महाराज के मन पर थोड़ा-सा असर आया । असर आना सहज था । वह कार्यकर्ता अविवेक से बोले ही जा रहा था। मुनिश्री ने कहा-मैं तो तुम्हारी बदनामी न हो, इसलिए कहता हूं, तुम भले मुझे सुराणाजी का मानो या दूगड़जी का, मैं तो सबका हूं। ये आने वाले यात्री गांव-गांव में तुम्हारी व्यवस्था भांडेंगे । तुम अपनी धारणा बदल दो। मैं किसी पक्ष से नहीं, हित की दृष्टि से तुम्हें कह रहा हूं। यदि तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं न बोलूं तो कोई बात नहीं, आइन्दा नहीं कहूंगा, पर आने वाले लोग बात बताते कैसे रुकेगे । ये अपना दुःख-दर्द सन्तों से नहीं कहेंगे तो और कहां कहेंगे ? सुनने वाले तो तुम्हारे जैसे होंगे? पर एक बात कह दूंतुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा इस पाररपरिक मनमुटाव में, बेचारे यात्रियों का खवं गाल है
'पख रो 'चंपक' पादरो, उफणे इयां उफांण ।
(थां) मोटोडां रे झोड़ में,(आं) नान्हा रो नुकसाण ॥ २२ अप्रैल १९७५ जयपुर
संस्मरण ३३३
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