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सोरठा-छन्द
मंगलीक महावीर, गोतम गणधर गुण निला । भिक्षू भंजन भीर, समरो निशिदिन श्रावकां ! ॥ १ ॥
तुलसी तरणी नाव, सागी इण संसार में । भक्ति करो भल भाव, सगती सारू श्रावकां ||२||
गणी-गणरा गुणग्राम, गाओ गौरव स्यूं गुणी । करो इसो कोइ काम, सुधरै नरभव श्रावकां ! | ३ ||
सामयिक शुभ- ध्यान, चिन्तन और चितारणो । बणो ज्ञान - गलतान, समकित धारी श्रावकां ! | ४ ||
गहरी तात्विक ज्ञान, मिलणो मुश्किल है महा । सीखो तत्त्व सुजान, सारां पेहली श्रावकां ! | ५||
मत द्यो निन्द्रा मान, बातां विकथा बरज कै । बंचे जद व्याख्यान, सुणो ध्यान स्यूं श्रावकां ! | ६ ||
अपछन्दा अवनीत, टालोकड़ गण स्यूं टलै । बरते जो विपरीत, संगत छोड़ो श्रावकां ! ॥७॥
मानवता रो मान, सदा बधावो सोख स्यूं । बणो मती व्यवधान, शुभ कामां में श्रावकां ! | ८||
पर - गुण स्यूं धर प्रेम, निरखो निज अवगुण निपुण । निमल निभाओ नेम, सुखे समाधे श्रावकां ! ६ ॥
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श्रावक-शतक
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