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पुरो वाक्
युवाचार्य महाप्रज्ञजी ने एक बार लिखा था - 'संकलन के लिए सब नहीं लिखा जाता, पर जो लिखा जाता है उसका संकलन हो जाता है । मनुष्य चिरकाल से संग्रह का प्रेमी है । वह बिखरे को बटोर लेता है और फूलों की माला बना देता है ।'
'मालाकार की अंगुलियों में कला है । वह धागों में फूलों को गूंथ कलाकार बन जाता है । कला तरु में नहीं होती, उसके पास कोरे फूल होते हैं । कलाकार होता है माली । तरु संग्रह करना नहीं जानता । उसे स्वार्थी लोग भलां कलाकार कैसे मानें ? मालाकार संग्रह करने में पटु होता है और वह सहज ही कलाकार बन जाता है ।'
चम्पक वृक्ष वसन्त में पुष्पित होता है और सुगंधित फूल देता है । उसकी सुवास से सारा वन-निकुंज सुरभित हो जाता है । वन निकुंज में सारे वृक्ष पुष्पदायी नहीं होते । जो पुष्पदायी होते हैं, उन सबके पुष्प सुवास देने वाले नहीं होते । सुरभि बिखेरने वाले कुछेक पुष्प ही होते हैं । उन पुष्पों की सुरभि से वह सब कुछ महक उठता है, जो अल्प सुरभिमय या असुरभिमय भी क्यों न हो । सौरभ वही बिखेर सकता है जो स्वयं सुरभित हो । असुरभित कभी सौरभ नहीं बिखेर सकता । एक संस्कृत कवि ने कहा है
'निसर्गादारामे
तरुकुलसमारोपसुकृती | कृती मालाकारो बकुलमपि कुत्रापि निदधे ॥ इदं को जानीते यदिदमिह कोणान्तरगतो । जगज्जालं कर्त्ता सुरभिभरसौरभ्रभरितम् ॥
एक कुशल माली वन निकुंज के निर्माण में लगा था । वह यत्र-तत्र भिन्न-भिन्न प्रकार के वृक्ष लगा रहा था। उसकी पौध-श्रेणी में बकुल वृक्ष का पौधा भी था । उसने उसकी उपेक्षा कर उसे एक कोने में डाल दिया । वन निकुंज पुष्पित वृक्षों से शोभित हुआ । सुवास फैलने लगी । सारा वन निकुंज बकुल की सुगंध से महक उठा । खोज की । कोने में पड़ा बकुल अपनी स्वयं की पहचान दे रहा था । उसकी
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