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सेवा तप है
उन दिनों मुनि कुन्दनमलजी के हाथ में फोड़ा निकल आया था। वेदना भयंकर रूप ले चली । वे रात-रात भर जाग-जागकर निकालते। हाथ सूज गया। फोड़े के भीतर मवाद (रस्सी) कुलती । वे कराह-कराह कर सांसें लेते। क्षमता से अधिक बेचैनी थी। लूपरी, सेक और दवा नाना तरह से उपाय हो रहे थे, पर वह भी विष-कंटा था। उग्र रूप लेता ही गया। जलन बढ़ गयी। वे तो परेशान थे ही पर देखने वाले को भी सिहरन होती । फोड़ा ऊपर से गल गया था। उसमें छलनी की तरह अनेकों छोटे-छोटे छेद हो गये थे। भीतर की मवाद निकल सके, ऐसा कोई उपाय नहीं था । वह भीतर ही भीतर विस्तार खा रहा था।
श्रीभाईजी महाराज आहार (भोजन) करने विराजे ही थे। पहला ग्रास मुंह में था और दूसरा हाथ में । इतने में आये मुनि कुन्दनमलजी हाथ से हाथ को पकड़े। चेहरे पर खिन्नता। आंखों में तरलता। ओ भाईजी महाराज ! कोई उपाय करावो । अब पीड़ सहन कोनी हुवै।
मुनिश्री ने गरदन उठाकर उनकी ओर देखा । दयार्द्र हृदय पिघल गया । मुंह का कवल गले उतरना भारी हो गया। हाथ का ग्रास पुनः पात्र में छोड़ दिया। पानी का प्याला उठाया, हाथ धोये, पूरे हाथ पोंछे कि न पोंछे, हमने देखा-भाईजी महाराज का वात्सत्य भरा हाथ उनकी पीठ पर था । दूसरे हाथ से उनका सिर सहलाते हुए सेवाभावीजी ने कहा---'कुनणूं । घबरा मत भाया । मैं पेहली थारों काम करस्यूं । देख, अबार ठीक करूं' कहते-कहते उनका हाथ पकड़े, कच्चे चौक में जा पहुंचे।
भाईजी महाराज का हाथ लगते ही फोड़ा फूट गया। एक चिपकारी चली, कपड़े रस्सी के छीटों से भर गये । थोड़ा-सा दबाया कि दूसरी चिपकारी छूटी और सीधी चेहरे पर आकर गिरी । मुनि कुन्दनमलजी घबरा गये । सकपकाते हुए बोले
संस्मरण २८५
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