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-'महाराज ! आपरै छांटा लागग्या।' और भाईजी महाराज बिना छीटों को परवाह किए फरमा रहे थे-'तू सोच मत कर। कपड़ा को 'र शरीर को? ऐ तो धोया' र साफ। पण थारै ठीक होणो चाहिजे।'
मुझे (सागर) आवाज लगाई। मैं रुई, कपड़ा, पट्टी, पानी और डिटोल लेकर जब तक पहुंचा, इतने में तो न जाने कितने ही तुकमें मुझे मिल चुके थे। मैं पहुंचा, मैंने देखा-उनके फोड़े में से अच्छी-खासी मवाद, भाईजी महाराज पांच-पींचकर निकाल रहे थे और फरमा रहे थे--कुनणं । थोड़ी-सी हिम्मत राख भाया ! आज तन्ने आछीतरियां नींद आ ज्यासी।' धीरे-धीरे सारा भीतर का कचरा दबा-दबा कर निकाला। घाव धोया, मलहम लगाई, पट्टी बांधी और उन्हें यथास्थान सुलाया। भाईजी महाराज ने हाथों की सफाई की । 'सलफर' डाइजीन की एक टिकिया मंगाकर उन्हें खिलाई और फिर कपड़े बदले ।
मैंने कहा-सारा आहार ठंडा हो गया है, क्या ही अच्छा होता हम पन्द्रह मिनट में यहां का काम समेटकर फिर उस काम में निश्चितता से लगते?
भाईजी महाराज ने जरा-सी आंख लाल की? क्या कहा ? पहले खाना खाऊं? खबरदार! आज के बाद ऐसा कभी मत कहना । पहले सेवा है, बाद में खाना । वह बेचारा बीमार साधु तो कराहे और मैं आराम से गिढूं? तुम्हें मालूम होना चाहिए 'सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः' सेवा परम गहन धर्म है, उसे योगी भी मुश्किल से पा सकते हैं । यह सेवा बार-बार नहीं मिलती। रोगी का काम तो मानवता का तकाजा है। तेरापंथ धर्मशासन सेवा-प्रधान है। हमारे यहां की सेवा-चाकरी की एक अद्वितीय मिशाल है। सुन -
'सागर ! सोहक्यूं सुलभ है, दुर्लभ सेवा-धर्म । ओ तप 'चम्पक' गहनतम, मानवता रो मर्म ।।
२८६ आसीस
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