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________________ छग्गू-बा मुनि छोगालालजी स्वामी-बोराणा वाले सीधे-सादे पवित्र साधु थे, पुराणे युग की चाल-ढाल । यों कहना चाहिए वह मलीन-वस्त्रों में उज्ज्वल आत्मा थी। श्री भाईजी महाराज को ऐसे भले, भोले, स्नेहिल और सरल लोगों से बड़ा प्रेम था। उन्हें छग्गू-बा के नाम से हम संत लोग पुकारा करते थे। गांवड़ियों के निःस्वजनों से उन्हें लगाव था। वे सादे इतने थे--गांव के गरीब लोग के यहां की रोटी खाकर बहुत प्रसन्न रहते। स्वतंत्रता में उनकी तुलना किसके साथ करूं, समझ में नहीं आता । अपना काम औरों से करवाना उन्हें नहीं सुहाता था। औरों का काम वे बड़े चाव-भाव से किया करते। किसी को भी काम के लिए नाटना उन्हें आता ही नहीं था। वैराग्य उनकी वृत्ति में उतरा हुआ था। हमने बरसों से उन्हें दूध पीते नहीं देखा। उनका मनोज्ञ खाद्य था-मिरच, चटनी, लूखी-सूखी रोटी, छाछ, राबड़ी। गोचरी की शौख इतनी, वे तीसरे गांव जाते। वे तो ऐसे आदमी थे-बादाम की बरफी देकर बदले में लूखी रोटी लेना पसन्द करते। भाईजी महाराज के साझ-मंडल में आए बिना उन्हें रंगत नहीं होती। वे सचमुच ओलिये फकीर थे, आते और यों ही जमीन पर पसर जाते। हम कंबल देते पर वे नहीं लेते। कपड़े गंदे तो होने ही थे। इतने पर भी वे सबको प्यारे-प्यारे लगते । उनकी बोली भी अपने आप में निराली थी। सन्तजन जान-जानकर उन्हें बुलवाते । उनकी बोली के लहजे की प्रियता-आसरै 'यूं है क नी' औरी 'ऊं करे मती', 'मूरखो' आदि शब्द हर किसी को आकर्षित कर लेते । उनकी इस निश्छलता पर आचार्यश्री भी मुग्ध थे । तनाव, दुराव और खिचाव से दूर उनका जीवन रमझमता, मन-गमता-सा था। वि० सं० २०१६ माघ कृष्णा दूसरी पांचम, दिनांक १५ जनवरी १६६३ की बात है। हम मेवाड़-गजपुर घाटा से आत्मा आ रहे थे। मध्याह्न का समय था। वह मेवाड़ी-पहाड़ी पथरीला रास्ता ! भाईजी महाराज के पैरों में दर्द । छग्गू-बा उस संस्मरण २८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003057
Book TitleAasis
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages372
LanguageMaravadi, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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