SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैराग्य की पहली किरण आज जहां उच्छृखलता की एक उदंड लहर चारों ओर दौड़ रही है, वहां उस युग में बड़ों के प्रति आदर-सम्मान और सहज श्रद्धाभाव था। उन दिनों गृहपतिअभिभावक का ही बहुमान / संकोच-शर्म पर्याप्त नहीं था, अड़ोस-पड़ोस के बुजुर्गों का भी रोब-रवाब और लाज-लिहाज था। ___ अपने लड़के और पड़ोसी के लड़के में उस समय भेद जैसा नहीं था। उस अपनत्व भरे माहौल में एक आम धारणा थी- बच्चा-बच्चा है । जितने हम अपने बच्चे के लिए जिम्मेदार हैं, उससे कहीं अधिक पड़ोसी के बच्चे की भी हम पर जिम्मेदारी है। __ श्री भाईजी महाराज फरमाया करते-जब हम खेलते, चालीस-चालीस, पचास-पचास बच्चे मिलकर गली में गोधम / धूम मचाया करते। मुझे याद है सेठ मोतीलाल जी बरमेचा जब भी गली की मोड़ मुड़ते, खांसते (खांसना उनका सहज स्वभाव था)। खंखारा सुनते ही हम सबको जाने क्या हो जाता, चिड़ियों के झुंड में पत्थर की तरह हम सब भाग-भागकर अड़ोस-पड़ोस के घरों में छुप जाया करते। म्याऊं-म्याऊं हो जाते । उनका इतना डर क्यों लगता, पता नहीं, पर उनका मुहल्ले भर में सामूहिक प्रभाव था। एक बार हम कुछ साथी चले । जेठ की मध्य दुपहरी । राणावजी के कुएं पहुंचे (वर्तमान में जो जैन विश्वभारती में है) । कुएं का कोठा (टांका) पानी से भरा था। हमने कपड़े उतारे । मैं नहाने कोठे के छज्जों पर उतरा । तैरना जानता नहीं था। किसी मित्र ने कहा-इस छज्जे से उस छज्जे तक ऊपर की कंगार (दासा) पकड़े-पकड़े पहुंची तो जानूं । मैं बिना सोचे चल पड़ा । मेरा सीने तक शरीर पानी में था। दोनों हाथों से दीवार की कंगार पकड़े-पकड़े मैं चल रहा था। आधी दूर गया कि ऊपर से हाथ छूट गया। २०८ आसीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003057
Book TitleAasis
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages372
LanguageMaravadi, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy