________________
मेरा राम पानी में डुबकियां खाने लगा। आज भी उस दिन की याद आने ही सारा शरीर सिहर उठता है । मैं मौत के मुंह में था। सांस घुटने लगी। एक बार ऊपर आया, फिर पानी में । गुटर-गुटर धुंघाट होने लगा। सारे साथी हक्के-बक्के थे। दूसरी बार फिर ऊपर आने का प्रयत्न किया, पर विफल । तीसरी बार जोर मारकर हाथ ऊपर की ओर निकाले कि किसी साथी ने हाथ थाम लिया । बस, अब क्या था, क्षण भर में पानी से बाहर । डूबते को तिनके का सहारा यों होता है। अब नहाना-धोना किसे सूझे । पर, डर था किसी को पता लग गया तो? हम सबने कपड़े पहने और घर की राह ली।
हम कुएं से उतरे ही थे कि पूनमचंद जी गोलछा आ गये । हमें काटो तो खून नहीं। उन्होंने दूर से जुता निकाला और धमकाया। 'छोरां ! कुमाणसां ! कठैई कालो मुंडो कराओ । कोई डूब'र मरग्यो तो? चालो घरे।' एक-दो के जूते की पड़ी भी, पर किसी की क्या मजाल, जो उनके सामने चूं भी करे। हम सबके पांव चिपक गये । भविष्य में बे-वक्त कुएं पर नहीं आने का वचन लेकर, हमें छोड़ दिया।
- रास्ते में हम सबने तय किया, इस घटना का किसी को पता नहीं चले । बात हम सब पी गये।
उस दिन मैंने नया जन्म पाया। पानी से इतना डर बैठ गया जो आज तक भी नहीं निकल पा रहा है। आज भी जब उस दिन की याद करता हूं, मन भयभीत हो उठता है।
मेरे वैराग्य का मूल दिन वह था। मैंने उस रात बहुत चिन्तन किया, मुझे जीवन की नश्वरता पानी में तैरती-डूबती दिखने लगी।
मैं राणावजी रे कुवै, डुब्यो जद कोठा मै। उगी किरण वैराग्य री, मौत दीसगी सामै ॥"
संस्मरण
२०६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org