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साध्वी रतनाजी (राजलदेसर) की स्मृति मै (२०२५, भाद्रपद, कृष्णा १३, चूरू)
सोरठा
वाह ! रतनाजी ! वाह !, करी फतह रण-खेत में। 'चम्पक' री चित चाह, लाख-लाख शाबास ल्यो॥१॥
रतनां रतन अमोल, शासण मै स्याणी सती। गम्यो न गाला-गोल, साफ कह्यो खुल्लो सुण्यो ॥२॥
दष्टि धण्यां री देख, पेहलां, पग धरती पर्छ। राखी रतनां रेख, आखी अणियां एक-सी ॥३॥
हित री हक री बात, कहतां रतनां कद चुकी। सुस्ताती नहिं स्यात्, करी न कोई री गई ।।४।।
सेवाकरण सचेष्ट, गिण्यो न छायां धूप नै । सागी मां-सी श्रेष्ठ, रतनां रोगी-ग्लान री॥५॥
चतर हाथ री आम, रतनां रंग-रोगान मै। इस्यो-विस्यो कोई काम, दाय न आतो देखतां ॥६॥
'चम्पक' नित अविवाद, पथ-त्यावण घासो घसण। आसी रतनां याद, सांधण टूटी पातरी ॥७॥
१६० आसीस
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