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पत्र-संख्या ३६
दोहा
देव गुरु परताप स्यं, अनान्द वरतै अत्र । शुभ भगिनी भगिनी सुणो, लाडां! चम्पक पत्र ॥१॥
सकल सिद्धि दाता सुगुरु, समरूं बारम्बार । जननी रो इण जगत मै, है अनन्त उपकार ॥२॥
संस्कारी सम्यक्त्व शुभ, सुध संयम सहयोग । आत्म-साधना में अतुल, पावन मिल्यो प्रयोग ॥३॥
ओ भैक्षव-शासन अमल, लहक लीला लहर। कहो बखाणूं मै किती, माताजी की महर ॥४॥
लाता भाई-बहन रा, आपां कर्या अपार । पण संयम बिन जीव री, सरी न गरज लिगार ॥५॥
मोको अबकै ओ मिल्यो, सऱ्या मनोरथ सार। समकित चारित पुल सफल, तऱ्या सिंधु-संसार ॥६॥
जीव विभावी भाव मै, रुल्यो अनन्तो काल । सहज आत्म-दर्शण बिना, सगलो आल जंजाल ॥७॥
कर्म-वर्गणा रो कर्यो, संचय आद अनाद । उज्ज्वलता तप-निर्जरा, बणै स्वर्ण निर्खाद ।।८।।
पद्यात्मक पत्र १७६.
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