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कवि बण, पण...
कविता करतां दधक्षर, सागर! राखी याद । चरण धरै चेतै बिना, (तो) व्यर्थ हुवै बरबाद ।।१।।
राख आदि में ज-भ-ह-र-ष शुरू न करणो छन्द । सुण सागर ! अ-ज-म-न-क पर, मत कर लेखण बंद ॥२॥
करामात कवि री किती, कहं कल्पनानीत । सागर झलक, गिरि गलै, जद कवि गावै गीत ॥३॥
कवि री छवि-सी कल्पना, रवि-सो कवि-उद्योत । नवि, पवि सागर ! अनुभवी कवि जगमगती जोत ॥४॥
कविता तोड़ मरोड़ कर, करै ओर की ओर । नांव आपरो चेपदै, चम्पक ! वो कवि चोर ॥५॥
४४ आसीस
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