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२३ आत्म-निदरसण
सुणकर अणगमतो सबद, लाल न करणी आंख । सागर ! पेहली स्वयं की, जीवन झांकी झांक ॥१॥
खिण भर भी सागर ! खुलो, मन मतंग मत छोड़। जद भाग अंकुश लगा, पाछो ही बाहोड़ ॥२॥
देखो भले दबाव दै, झटकै मिलै न तथ्य। तर्क तराजू स्यूं तुलै, सागर! कदे न सत्य ।।३।।
सावधान सागर ! रही, आज 'जवां' को राज । चटको देव एक ही, चलै कई दिन खाज ॥४॥
आत्म-निदरसण रै बिना, सब दरसण बे-कार । सिद्धि-द्वार सागर ! सुलभ, आत्मा ही हरिद्वार ॥५।।
पच्चक बत्तीसी ३७
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