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पण
'कवि बण, ..." शीर्षक के अन्तर्गत मुनिश्री ने कवियों को सावधान करते हुए एक रहस्य को उद्घाटित किया है। राजस्थान में यह तथ्य प्रचलित है कि कवि को अक्षर - विन्यास करते समय पूरी सावधानी बरतनी चाहिए। यदि कहीं 'दग्धाक्षर' का प्रयोग हो जाए तो कवि का सर्वनाश हो जाता है । इसलिए कवयिता निरंतर इससे बचने का प्रयत्न करता है । पर सारे कवि इस तथ्य को नहीं जानते कि कौनकौन से अक्षर दग्धाक्षर होते हैं । एक सेवक था नागौर में । वह तुकबंदी करता था । एक बार उसने कविता लिखी और अन्त में उसने अपना नाम लिखकर 'नागो रमे' इस प्रकार अपने गांव का नाम लिखा । वास्तव में उसको लिखना चाहिए था - 'नागोर में' पर प्रमाद के कारण लिख डाला - 'नागो रमे' । कुछ ही वर्ष बीते । वह पागल हो गया और गांव में 'नागा' (नग्न) घूमने लगा । 'नागो रमे' का अर्थ यही होता है - नग्न घूमना। उसकी वही हालत हो गई । 'आसीस' के कवि इस तथ्य से परिचित हैं और वे सभी कवियों को सावधान करते हुए कविता को कौन-कौन से अक्षरों से प्रारंभ नहीं करना चाहिए, उसका अवबोध देते हैं । उन्होंने लिखा है
राख आदि में 'झ भ ह र ष' शुरू न करणो छंद । सुण सागर ! 'अज म न क' पर, मत कर लेखण बंद ||
'आसीस' के कवि कवि की करामात से पूर्ण परिचित हैं । वे जानते है कि कवि सर्वत्र आनन्द की अनुभूति करने में दक्ष होता है । वह निराशा और आशा मान और अपमान, सुख और दुःख -- सर्वत्र आनंद खोज निकालता है, प्रकाश प लेता है ।
कवि और दार्शनिक — दोनों दो भूमिकाओं पर कार्य करते हैं । दोनों का उद्देश्य एक है- सत्य की खोज । पर दोनों की अनुभूति में रात-दिन का अन्तर है इसी को समझाने के लिए महाप्रज्ञ का कवि हृदय कह उठता है
'आनन्दस्तव रोदनेऽपि सुकवे ! मे नास्ति तद् व्याकृती, दृष्टिर्दार्शनिकस्य संप्रवदतो जाता समस्यामयी । किं सत्यं त्वितिचिन्तया हृतमते ! क्वानन्दवार्ता तव, तत् सत्यं मम यत्र नन्दति मनो नैका हि भूरावयोः ॥'
दार्शनिक कहता है - कवि ! तेरे रुदन में भी आनंद है । मैं आनंद की अभिव्यक्ति देता हूं, पर आनंद को भोगता नहीं । ज्यों-ज्यों मैं आनंद की अवस्थाओं के वर्णन में डूबता - उतरता हूं तब तब मैं और अधिक उलझ जाता हूं । उलझन में कैसा आनंद ! कवि कह उठता है - अरे दार्शनिक ! तू निरंतर इसी रटन में रहता
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