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________________ २१ है कि सत्य क्या है ? सत्य क्या है ? यह भी सत्य नहीं है। वह भी सत्य नहीं है । पर मैं उस सत्य की खोज में उलझता नहीं । उसे ही सत्य मानता हूं जहां मेरा मन लग जाता है, प्रफुल्लित और मुदित हो जाता है। यही तेरे और मेरे में अन्तर है। आसीस के कवि की अभिव्यंजना है करामात कवि री किती, कहूं कल्पनातीत । सागर झलक, गिरि गलै, जद कवि गावै गीत ।। कवि री छवि-सी कल्पना, रवि-सो कवि उद्योत। नवि पवि सागर ! अनुभवी, कवि झगमगती जोत ॥ कवि जन्मना भी होता है और अभ्यास से भी बनता है । अभ्यास में श्रम, अध्यवसाय, एकनिष्ठाऔर सातत्य आवश्यक होता है। सब ऐसा करना नहीं चाहते। वे अलस व्यक्ति कवि बनने के लिए नहीं, कवि कहलाने के लिए दूसरों की कविताओं को इधर-उधर कर अपनी नामांकित कविता बना डालते हैं। वे होते हैं 'कवि-चोर'। आसीस में कितने सहज-सरल ढंग से इसकी अभिव्यक्ति हुई है 'कविता तोड़ मरोड़कर, करै ओर की ओर । नांव आपरो चेपदै, 'चंपक'! वो कवि-चोर ॥' कवि की अनुभूति वेधक होती है जब वह अपने परिवेश के प्रतिबिम्ब को आत्मसात् कर आगे बढ़ता है। कवि कहता है—उषा भी फूलती है और सन्ध्या भी फूलती है, किन्तु दोनों के फूलने में अन्तर है। दोनों की निष्पत्ति भिन्न है। उसमें आकाश-पाताल का अन्तर है। उषा दिन लाती है और सन्ध्या रात । एक उजाला लाती है और एक अंधेरा। सन्ध्या और प्रभात, फूलण फूलण में फरक । - ल्यावै दिन इक रात, 'चंपक' चिन्हे चिन्ह श्रमण ! ॥ शासन और अनुशासन-ये दो शब्द हैं । शासन एक परंपरा का बोध देता है। वह साधना से उपजता है, तब उसमें से अनुशासन निकलता है। व्यक्ति बड़ा नहीं होता । शासन बड़ा होता है, परंपरा बड़ी होती है। शासन वसुन्धरा है । सारे रत्न उसी में से निकलते हैं। तेरापंथ एक धर्म-शासन है । उसके विकास में साधना और तपस्या का तेज काम करता रहा है। जो शासन के प्रति समर्पित रहता है, वह सत्य और अहिंसा के प्रति समर्पित है, त्रिरत्न की साधना के प्रति समर्पित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003057
Book TitleAasis
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages372
LanguageMaravadi, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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