________________
शासन की व्याख्या कर कवि ने अपने शासन-प्रेम को अभिव्यक्ति दी है
शासण सुरतरु सुखकरु, सिद्धिसौध सोपान । 'चंपक' शासण च्यानणो, आन-मान-सम्मान ।
शासण शीतल छांवली, अणाधार आचार । 'चंपक' शासण चेतना, हरण पाप हरिद्वार ।
शासण दुर्लभ देवरो, शासण पूजा-पाठ । शासण र परताप ही, 'चंपक' सगला ठाठ ।।
मानसरोवर मलयगिरि, मख-मयूख-मोहार । मंगलमय शासण मुदित, 'चंपक' चरण पखार ।।
शासन को अपना सर्वस्व मानने वाला व्यक्ति कभी भटकता नहीं । यह उसके लिए रक्षा-कवच और देवालय है जहां अपना प्रभु विराजमान है। शासन की पूजा अपने इष्टदेव की पूजा है और शासन की चेतना कवि की चेतना है, प्रत्येक साधक का चैतन्य है । कवि का शासन-प्रेम इन पद्यों में स्पष्ट रूप से अनुभूत होता
____ अनुप्रास कविता का आभरण है। सभी कवि इसमें निष्णात नहीं होते । कुछेक कवियों की शब्द-संपदा इतनी होती है कि अनुप्रास उनकी कृतियों में सहज-सरल रूप से व्यवहृत होता है । प्रस्तुत कृति के कवि अनुप्रास प्रेमी थे और वे यदा-कदा बातचीत में भी 'अनुप्रास' का प्रयोग सुगमता से कर लेते थे। उनके कुछेक पद्य
धैर्य बिना कद धर्म, टिकै धिकै थिरकै सिके । धर्म बिना कद कर्म, सिरकै छिटकै साधकां! ।।
ढिगला-ढिगला ढाक, अणगिणती-सा आकड़ा। श्वेत ढाक अरु आक, साधक बिरला साधकां! ॥
टक्कर देव टाल, टूटी जोड़े टेम पर । टीस रीस पै ढाल, स्याणो बो ही साधकां! ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org