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चटकै जावै चैट, चींट्या चीणी नै चुंटण । खारो खरो रु खेट, सूंघे कोई न साधकां!।
मन स्वभावतः चंचल नहीं है, पर वह बना हुआ है चंचल । उस चंचलता के घटक अनेक हैं। उन्हीं के आधार पर वह नाना-रूप धारण करता है, एक विदूषकसा बन जाता है । वह कभी राम का अभिनय करता है तो कभी रावण बन जाता है। एक रूप वह रह नहीं सकता, क्योंकि बेचारा दूसरों से संचालित है। उसके बहरूपियेपन को कवि ने इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है
मन गलतो मन गोमती, मन ही तीरथ-घाट । मन मन्दिर मन देवता, मन ही पूजा-पाठ ।।
मन गंगा मन गंदगी, मन रावण मन राम । सुरक-नरक पुन-पाप मन, मन उजाड़ मन ग्राम ॥
मन सीता मन सुर्पणा, मन हि कृष्ण मन कंस । 'चंपक' मन योगी-यवन, मन कौओ मन हंस ।।
प्रस्तुत कवित्त में मन को सरल रूपकों से समझाया गया है। उसकी विविधता को समझने में ये प्रतीक बहुत कार्यकर हैं, क्योंकि व्यक्ति-व्यक्ति इनसे परिचित
प्रस्तुत कृति के कवि 'सेवाभावी' शब्द से संबोधित होते थे । सेवा उनका परम धर्म था । रुग्ण की सेवा-सुश्रूषा करने में वे सदा तत्पर रहते थे। वे रुग्ण व्यक्ति के नाम-रूप के आधार पर सेवा नहीं, उसकी रुग्णता और वेदना के आधार पर सेवा में संलग्न हो जाते थे। वहां स्व-पर की सारी सीमाएं समाप्त हो जाती थीं। शेष रहता था केवल अनन्त आकाश । रुग्ण व्यक्ति का छोटे से छोटा कार्य करना वे अपना कर्त्तव्य समझते थे। इस सेवा-धर्म ने उनको एक सफल चिकित्सक के रूप में भी प्रतिष्ठित कर दिया था। वे औषधियों के ज्ञान से संपन्न थे । पथ्य की व्यवस्था वे कर लेते थे। उसी औषधि-ज्ञान को वे कितनी सरलता से प्रस्तुत करते हैं।
जब जी मचलता हो तब
जीवदोरो होवै जरां, दोय लूंग लै चाब। 'चंपक' अन्तर आग आ, रुई मै मत दाब ।
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