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इमरत-धारा अधिकतर, सुलभ मिलै सब ठोड़ । च्यार बूंद ले क्यूं करें 'चम्पा' भागा-दौड़ ||
दांत के दर्द में वे कहते हैं
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दांत दरद ज्यादा करें (तो) हलदी मसलो भाई । दाब कपूर कांकरी (या) हींग मु-सरल दवाई ॥
तीन लूंग नींबू रै रस में पीस दांत पर मसलो । दर्द मिटै 'चंपक' हो ज्यावै, झट हल मसलो सगलो ||
खांसी रोग के लिए -
च्यार पांच कालीमिरच डली लूंण की न्हांक 1 चाबो पाणी मत पिओ, खांसी जाय
चटाक ॥
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काव्यात्मक पत्र-लेखन की पद्धति बहुत प्राचीन है । कवि अपना अभिप्रेत काव्य के माध्यम से इष्टजन तक पहुंचाता है । जो पैनापन गद्य में नहीं आता वह पद्य में सहज रूप में आ जाता है । प्रस्तुत संकलन में स्वलिखित अनेक पत्र संकलित हैं, जिनमें अभिव्यक्ति का वैशिष्ट्य स्वतः दृग्गोचर होता है ।
आचार्यश्री तुलसी के साथ मुनि चंपक दक्षिण यात्रा पर थे, उनकी साध्वी बहन साध्वीप्रमुखा लाडांजी बीदासर में स्थित थीं । वे बीमार हुईं और पञ्चत्व को प्राप्त हो गईं। उनकी स्मृति में कवि कहता है
खरी कुशल खेमंकरी, खटी न खामी खेह | लांडा 'दीपां' दूसरी, हथणी की-सी देह ||
कला - कुशल कोमल कमल, पद की रंच न पीक । 'चंपक' राखण चोकसी, लाडां तजी न लीक ॥।
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बिज्जल बंकी बेनड़ी, निर्मल 'चंपक' आज चली गई, मैं समरुं
शासण - नैण | दिन- रैण ॥
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