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इसी प्रकार मां साध्वी वदनांजी के लिए कवि के उद्गार हैं
म्हैं तो चिकमंगलोर मैं थे बीदासर ठीक । दूरी चंपक देह पर, अन्तर अति नजदीक ॥
मन में आवै उड मिलूं, पगां हुवै जो पांख । के है ? क्यूं ? क्यूं नहिं मिटै, झट ल्यूं 'चंपक' झांक ॥
इस प्रकार यह कृति विविधताओं का सुन्दर संगम स्थल है। इसमें ११७० दोहा, सोरठा और छंद हैं। प्रत्येक पद्य अपने आपमें एक सहेतुक निदर्शन है । भाईजी महाराज -- यह नाम जब अधरों पर आता है तब सर्पफनी गेडियाधारी
चंपक की राठौड़ी आकृति आंखों के सामने नाचने लग जाती है । मैंने उनकी सेवा-आराधना नहीं की, पर उनका पूरा वात्सल्य और स्नेह पाया । यह अकारण ही मेरे पर होने वाली कृपा - वृष्टि थी । मैं लघु, वे गुरु । अपनी गुरुता में मिलाकर उन्होंने इस लघु को भारी बनाने का सफल प्रयत्न किया । मैं स्पष्टवादी था या नहीं, पर वे मुझे सदा सत्यसेवी मानते रहे । उनकी चंपक पुष्प की सी मुस्कान सदा मुझे नहलाती रही और तब 'मैं-वे' का नैकट्य सध गया । कहां वे और कहां मैं ! पर मुझे वे सदा आत्मसात् करते गए और स्वररहित पर सार्थक छंद में बांधते गए । उनकी करुणा अपार थी, प्रतिबद्धताओं से रहित थी, पवित्र और गहरी थी । यही एकमात्र कारण था कि वे व्यष्टि नहीं समष्टि बन गए थे, व्यक्ति नहीं विश्व बन गए थे । जीवन-काल में वे हजारों की स्मृति में जीवन्त रहे, निरन्तर योगक्षेम के संवाहक के रूप में अवस्थित रहे और मरकर भी सबके स्मृतिपटल पर अचल बन गए । वे जीये औरों के लिए । 'पर दुःख - कातरता' यह उनका जीवनमंत्र था, जो लाखों-लाखों को उनके चरणों में उपस्थित कर देता था । एक शब्द में कहूं तो ' स एव स:' - वे वे ही थे । कितने गुणों का संगम ! कितना पुरुषार्थ ! कितना श्रम ! कितनी सेवा ! आप थे आचार्य तुलसी के बड- बन्धव ! आप थे अनोखे सन्त !
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प्रस्तुत ग्रंथ के संपादक- संकलक हैं श्रमण सागर । आप प्रस्तुत कृति के कवयिता के साथ छाया की भांति ३० वर्ष तक रहे और मुनिश्री की पूर्ण चर्या के नियामक, संयोजक और संरक्षक थे । आप स्वयं कवि, इतिहासकार और संस्मरण लेखक हैं । इतिहास की जब आप बातें सुनातें हैं, तब सुनने वाले को प्रतीत होने लगता है कि श्रमणजी संभवतः उस समय वहीं थे और घटना को देख रहे थे । पर यह केवल एक आभास ही है। आप जिस भाव भाषा में सुनाते हैं, वह स्वयं विशिष्ट होती है और श्रोता को घटना से एकात्म कर देती है । प्रखर बुद्धि के धनी श्रमण
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