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प्रस्तुत होतीं । आप स्वयं उनका संगान करते । अन्यान्य मुनिगण आपके स्वरों कां साथ देते और तब सारा वातावरण संगानमय हो गाता । उसकी प्रतिध्वनि लंबे समय तक गूंजती रहती और उस प्रतिध्वनि की प्रतिध्वनियां अन्यत्र - सर्वत्र शब्दायित रहतीं । यह सब उन गीतिकाओं की सरसता, सहज-सरल शब्द - परिधान, लय की सुगमता आदि तत्त्व ही मुख्य कारण बनते थे । संगान को जानने वाला या नहीं जानने वाला, पढ़ा-लिखा या अनपढ़ - सभी उसको गुनगुनाते हुए देखे जाते । यही उनकी सार्वजनिकता थी ।
कवि ने स्वयं लिखा है
'मैं कवि कोनी, पण कवियां रै बिच ऊठूं बैठूं । कविता रा खरडा'रु खलीता खोलूं और लपेटूं ॥ भावां री छोलां मैं फिर-फिर लिखूं समेटू गेहूं । शब्दां री तलपेटी ढेर, उधेड़-उधेड़ पलेदूं ।'
'छन्द न जाणूं बन्ध न जाणूं सन्ध न जाणूं भाई । तिणखो तिखो जोड़, मंसा-सी एक छानड़ी छाई ॥ 'चम्पक' तूआं जूनां भवियां कवियां हिये हार-सी । आतम दरसण करण बणैला आ 'आसीस' आरसी ॥'
जब अनुभूति का सोता फूटता है, तब एक हृदय की अनुभूति अगणित हृदयों की अनुभूति बन जाती है । यह कोई विस्मय की बात नहीं है । व्यक्ति-व्यक्ति का जीवन पृथक्-पृथक् होते हुए भी, जीवन की कुछेक भूमिकाएं समान होती हैं । उनमें अनुभूति की समानता स्वाभाविक है । समान अनुभूति में एक व्यक्ति दूसरे से जुड़ जाता है ।
प्रस्तुत कृति 'आसीस' ऐसी ही अनुभूतियों का खजाना है । देश, काल और वातावरण के व्यवधान के साथ-साथ उनमें अभिव्यक्ति की भिन्नता अवश्य आ जाती है, पर उनकी चुभन वैसी की वैसी बनी रहती है । वह चुभन ही इस कृति की विशेषता है । प्राचीन कवि ने कहा- वह क्या बाण का प्रहार जिसके लगने पर योद्धा सिर न धुने और वह क्या काव्य जिसके शब्द-श्रवण से सिर न हिले । आपने लिखा --
'रतन रती 'रू रबाब, ठीमरता स्यूं ठहरसी । खेमी करै खराब, रिकटोल्यां में मूलजी ॥ मिनख मतै मोती मिण, नैण निवाणां- नीर । रुपटरी के दूलजी, चम्पक लैग लकीर ।।
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