________________
मैंने अक्ल सीखी एक रुपये में
फिसलन भरे शहरी वातावरण का उल्लेख करते हुए श्री भाईजी महाराज ने अपना एक निजी अनुभव सुनाया। उन्होंने कहा-'शहरों में पग-पग पर पतन की खाइयां खुदी पड़ी हैं । ऐसे लोगों की आज कोई कमी नहीं है, जो अपना कहलाकर अपनों का ही जीवन बरबाद करने में तुले हुए हैं । जब बड़ा भाई ही छोटे भाई को गलत रास्ते ले जाए, औरों से क्या आशा की जा सकती है। मैं भी एक दिन फंस गया था जंजाल में । कलकत्ते की बात है।
__ बिना किसी नामोल्लेख के श्री भाईजी महाराज बता रहे थे-मैं तकादा लेकर आ रहा था । मेरे अत्यन्त निकट के भाई साहब मिल गये । वे सब बातों में पास थे । सर्वगुण सम्पन्न । मैं जानता था उनकी गतिविधि । पर नया-नया था, लिहाजन मैं उनके साथ हो गया। बात-बात में उन्होंने कहा-चम्पा ! चल इधर से चलें । मैं संकोचवश इनकार नहीं कर सका। आगे जाकर वे कहने लगे-'आव ! आव, एक गाना सुनकर चलेंगे। यहां गायक मंडली शानदार है ।' मैंने आना-कानी की, पर फंस गया था, निकल नहीं सका । यह मेरी अपनी दुर्बलता थी। साथ-साथ मैं रास्तों से अनजान था, करता भी तो क्या ?
हम गायन में बैठ गए। मैं वहां न रुक सकता था, न वहां से उठ ही सकता था। मन में भय था। मामाजी क्या कहेंगे ? देर जो हो रही है। वहां वे इन्तजार कर रहे होंगे। मुझे तब तक यह पता नहीं था, यह देह-व्यापार केन्द्र है ।
घंटा भर के बाद जब हम उठकर चलने लगे। सवाल आया पैसों का । भाई साहब तो भूखे फकीर थे। उन्होंने मुझे आदेश की भाषा में कहा-'चम्पा ! एक रुपया दे दो।'
हुकुम करते उन्हें क्या जोर आया? मैंने पूछा-'रुपया कैसा?' वे तड़ककर बोले-'कैसा? कैसा? गाने-बजाने का।' उन्होंने रोब गांठा । पर मैं देता कहां से?
२१८ आसीस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org