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कशा मार, खेंचै कुशा, ओ बे-अकल अजाण । करमा नै रोसी, कुशी! प्रोथी तजसी प्राण ॥३१॥ बड़ो कुमाणस सागरियो, गोरांजी! थारो भाई। बाई! इंनै समझाओ तो, मनै हुवै सुखदाई। देखो फोड़ी नुई पातरी, थाडो-सो चिमठाओ। भलै आदमी मैं कद आसी, अक्कल मनै बताओ ॥३२॥
मांडीखेड़ा ! तूं बडो, बहमी भी बे-डंग । (पण) दिखा दियो परतापजी, रजपूती रो रंग ॥३३॥
हाथी के हांक्यां करै, ऊठां ज्यूं टिचकार । (आ)जाणै एक गिवार भी(थे)कियांचलाओसरकार॥३४॥
छांनै सिरहाणे छिपा, चिट कद स्यूं क्यूं मेली। तुलसी ! 'चंपक' चिमठियो, बणी अबूझ पहेली ॥३॥
विनय मान-सम्मान में, मै स्नेहार्द अखट। के ठा? भाई बैठणो क नहीं, कह चल्यो ऊठ ॥३६॥
बुरा न मानें, पूछ रहा हूं, झिझक है कि, कुछ उलझन ? कवि बैठे कमरे के भीतर,(और)बाहर कवि-सम्मेलन ॥३७॥
म्हारै कहणे स्यूं हुवे, कद विनीत-अविनीत । (इं) मजलिस ने पूछो जरा, तुम कितनेक विनीत ॥३८।।
कृपा गुरांरी है जठ, बठै मधुर मधु-मास । संघ गुणी, चंपक रिणी, कृपा-कृपा सहवास ।।३६।
अकलदार पेहली बता! आज्ञा है कि आहार? खाऊं या सेवा करूं? सागर ! सोच विचार ।।४०।।
अणहोणी होसी नहीं, होसी जो होणी । मन मानी तांणो मती, गुरु-दृष्टि जोणी ॥ धर्म-विहीन-समाज के? ठप समाज बिन-धर्म। स्वर-व्यंजन-सी एकता, चंपक समझ्यो मर्म ॥४१।।
१८८ आसीस.
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