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बा मटकी पटकी बठे, अटकी अठ अजेस। 'चंपक' चटकी पण दकी, भटकी मती मुनेस ॥४२॥
आछो सोच्यो आपपण, म्हारे जची न हाल । (अ) तीनूं टाबर एक-सा, 'चंपक' लागै चाल ।। कमी न राखी आफ्तो, कृपा करायी धाप । 'चंपक' आगै आगलां रा अपणा पुन-पाप ॥४३॥
करै संघ-हित करणियां, प्राणार्पण प्रख्यात । गम खालेण मैं जीवण ! गजब जिसी के बात ॥४४॥
कविता कुदरत की कला, सागर ! मिल्यो सुयोग । (पण) आइन्दा अपशब्द रो, फेर न करी प्रयोग ।।४५ ।।
आगेसर करणी नहीं, सागर ! इसी मजाक। धसकै स्यूं फाटै हियो, हुवे अनर्थ हकनाक ॥४६।।
घृणा न करणी घाव स्यूं, रोगी स्यूं अनुराग । सागर ! सेवा सन्त री, मिलै पुरबल भाग ॥४७॥
सागर ! मत कर सूमड़ा, कर काठो कंजूस। दियां नहीं खूटै दरब, मत बण मक्खीचूस ॥४८॥
सागर ! सोह क्यूं सुलभ है दुर्लभ सेवा-धर्म । ओ तप 'चंपक' गहनतम, मानवता रो मर्म ॥४६॥
छग्गू-बा गमेती बाबो, आवै आडो-आडो। 'चंपक' वरस चोरासीआया, तोही गुड़कावै गाडो॥५०॥
माली सींच्यो, तरु फल्यो, चढ्यो भगत-जन हाथ । चंपै री आ पुज्यता, सदा सफेदी साथ ॥५१॥
सिवा आपरै कुण सके, म्हारा रस्ता रोक । आज्ञा लिछमण-रेख आ, 'चंपक' चोड़े चौक ॥५२॥
संस्मरण पदावली १८६
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