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चम्पो भी कंठ मिलासी, मधरी तान- तान-तान । सोहन ! मुनि ! मत करो मसखरी, संत सुजान जान जान ॥ १६ ॥
तार नहीं, टेम नहि, तो ही चाल मलकती चालै,
दरब घणां, दाता घणां, (पर) अन्तराय अगवाणी । ढूंढ़ण रिषि नै राजग्रही मैं, मिल्यो न भोजन - पाणी ॥ २१ ॥
नहीं दिये मै तेल । (म्हारै ) लाडणं री रेल ॥२०॥
करुणा-धाम ।
किती कहूं कालू कृपा, कृत-मुख चम्पा ! तू उलझ्यो कठै ? (ओ) नहीं आपणो काम ||२२||
गुरु की गुरुता एक शब्द मैं ही
अनपार ।
गजब की, वत्सलता दियो, म्हारो जहर उतार ॥२३॥
सन्तां ! शासण मैं सदा, सेवा धर्मं श्री कालू करुणा करी, क्यो
सुमिरन शक्ति अचिन्त्य है, परख्यो धर अनुराग । निकल्यो निबिये ईडबे, (जद) पैरां पर स्यूं नाग ॥ २५ ॥
अतुल्य । सेवा - मुल्य ||२४||
सन्तां ! कठिन- कठिन सेवा को अवसर जद- कद आवै । सब स्यूं आगे रह सेवार्थी, 'चंपक' भाग्य सरावे ॥ २६ ॥
गीली गार दिवार थे, चढ़ग्या लडदा च्यार । ढ़हण रा 'चंपक' ढ़चक, अ साहमा आसार ||२७||
छग्गू - बा ! आ के ल्याया, पाणी लारै लहताण ।
रह्या तिसाया, चढ्यो तावड़ो, वाहरे ! वाह ! 'धमताण' ॥ २८ ॥
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पुस्त पुराणा री पकी, मुचै न मिनख मकान | अस्थिर 'चंपक' आज रा नुआं
मकान जुवान ॥ २६ ॥
सकै
'चंपक' चेहकै को चकर, सह नहि टहण्यां तो नीचै टिकी, ऊपर जड्या
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हरेक । उवेख ||३०||
संस्मरण पदावली १८७
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