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बोलो मत, काम बढ़ेगा
श्री डूंगरगढ़ मर्यादा-महोत्सव पर श्री भाईजी महाराज दीपचंदजी सेठिया के मकान में विराज रहे थे। धनराजजी पुगलिया आए। उन्होंने बीडीओ कैसेट दिखाने की योजना बनायी। आचार्यप्रवर के कुछ कार्यक्रम तथा लन्दन की कुछ स्मृतियां-जहां वे रहते हैं-दिखाना चाहते थे। कुछ भाई-बहनों के साथ हम भी वहां थे। हमारा वैसे बैठने का स्थान भी वही हाल था। धनराजजी कैसेट-चित्र दर्शन के साथ-साथ लन्दन के स्थान विशेष के परिचय बता रहे थे। बीच में कुछ राजस्थानी वैवाहिक रीति-रिवाज के चित्र भी आए।
किसी कारणवश कोई भाई बाहर गया। रास्ता खुला कि धक्का मारकर चन्दनमल चंडालिया (सरदारशहर) भीतर घुस आया। बिना इजाजत भीतर आना सबको अखरा । वह पूछकर भी आ सकता था। वह निरवद्य आग्रही संघ का सदस्य है। आग्रही भी नाम के अनुरूप ही है । वह आया, इसमें न हमने एतराज किया, न किसी भाई ने। थोड़ी देर बाद वह अंट-संट बोलने लगा-'क्या यही है साधु की संयम-साधना? कल्पता है सिनेमा देखना? चौमासिक प्रायश्चित्त आता है। तेरापंथ और आचार्य भिक्षु के नाम पर बट्टा लगा दिया आप लोगों ने । ये श्रावक साधुओं को डुबोने वाले हैं ! महापाप ! महापाप ।'
कुछ लोग उबल पड़े। वह चिल्लाकर कहे जा रहा था- 'अभी कालूगणी होते तो?'
दुतरफी उत्तेजना बढ़ती देख भाईजी महाराज ने फरमाया-चन" ! उत्तेजना तो पाप है ही । अब ज्यादा बोलने से काम बढ़ेगा। जात जताने से फायदा ? (उसकी जात चंडालिया है। चंडाल-क्रोध) मसाला प्रचार करने को तेरे हाथ लग गया है, अब क्यों बोलता है ?
संस्मरण ३२५
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