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आछां रो मेल
सागर! तूं सत्संग रो, आंक मोल आगूच । मीठे री मनुहार मै, पातल की भी पूछ ।।१।। सागर ! समझू सुगण जन, पंडित स्यूं कर प्रीत। तिरै काठ संग लोह भी, आ उत्तम-जन रीत ॥२॥ बैठे तो तूं बैठ जे, पंडित-जन रे पास । सागर ! संगत स्यूं बढ़े, बुद्धि, विनय, विश्वास ॥३॥
भिड़णो चावै तो भिड़ी, सागर ! पंडित सोज । विज्ञ-वैद्य रे हाथ स्यूं, मरण मै भी मोज ॥४॥
आछां नै आछो मिल, आछोड़ा रो मेल । सागर ! सागर मै रलै, बिना बुलायां बेल' ॥५॥
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१. नदी का प्रवाह।
पञ्चक बत्तीसी २१
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