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सरल बण
सागर ! सीधै बांस पर, लहरावै ध्वज लोक । बांकी-चूंकी लकड़त्यां, चूल्हे मै दै झोंक ॥१॥
सागर ! बण शिशु-सो सरल, बांक बुराई छोड़। जठे सरलता साधुता, सौ को एक निचोड़ ॥२॥
सागर ! श्रद्धा-सिद्धि रो, पकड़ पाधरो पन्थ । बिना सरलता सत नहीं, नहीं सत्य बिन सन्त ॥३॥
सागर ! जागृत-जोग बण, रच मत माया जाल । चेतो राखी चुगल की, 'चम्पक' समझण चाल ॥४॥
सागर ! कर गति-मति सरल, सरल सूरीली बीण । पाप प्रपंचां स्यू परै, कोविद ! कला-प्रवीण ! ॥५॥
२६ आसीस
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