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लाग्यो 'चंपक' लोभ में, कुक्कर बिना बिचार। कई दिनां तक खटकसी, ओ कंगण केदार ॥६२॥
अरे ! बाप रो मोह ओ, आछो नहिं है अन्त । 'चंपक' फोड़ा पड़ेला, सुणले सन्त वसन्त ॥ मालव री काची रही, ठेट जेट की जेट । गा, गलावडो ले गयी, खेलो मिटियामेट ॥६३।।
छोटी-सी गलती बण, 'चम्पक' भारी भूल । सारहीण सिगरेट में, मानो अनरथ मूल ॥६४॥
गई अकल गावन्तरै, सागरिया! की सोच । नाभी जड़ नर-देह री, कहदे निस्संकोच ॥६५॥
कीड्यांभी कोनी कर, निःकरमा स्यूं नेह । पकड़ टांगड़ी फैंक दै, परली कानी पेह ॥६६॥
मतलबस्यूं 'चंपक' मिल ज्याणो, बता बड़ी के बात? एक साथ निभावै बीरो, सदा निभाणो साथ ॥६७।।
संयम सुध-बुध बिसर कर, भाजड़ भाजी जाय । 'चंपक' चेतो बाप रे, (जद) फल प्रमाद रा पाय ॥६॥
जो देणे जोगो हवै, उणन ही बतलावै । 'चंपक' मांगण नै भलां! कुण किणर घर जावै ॥६६॥ कालै स्यूं क्यांन करै ? मूरख ! माथा कूट । कुओ कबूतर नै दिस, झूठे नै सो झूठ ।।७०॥ 'चंपक' काम बढ़ेला चनणं! जग मै जता न जात। लवै अबै क्यूं लागगी, खरची थारै हाथ ॥ ७१।। भाई भाई रै घरै, आवै मोटै भाग । 'चंपक' भगती भाव स्यूं, बधै धर्म अनुराग ॥७२॥ चंपक जैन समाज रो, गूंजै गौरव गान। पड्यो सामने प्रेम रो, फल चोड़े चौगान ॥७३।।
संस्मरण पदावली १९१
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