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प्रचलिया सुगनू बाबू की याद में
दोहा
भद्र - पुरुष, भाविक भलो भातृ-भक्ति भरपूर । भीतर भीरु, भुज-बली, छल-बल-दल स्यूं दूर ॥ १ ॥
शासण रो सेवक सुघड़, सभ्य, शील-संगीन । शान्त स्वभावी, सन्त-सो, सुगनचन्द शालीन ||२||
पग-पग रस्तो नापतो, यात्रावां रो रूप । साताकारी सांतरी, गिणी न छायां
धूप ॥ ३ ॥
बंगाली - बाबू जिसो, बण्यो बणायो वेश । काली कांबल इकपखी, विनयी विज्ञ विशेष || ४ ||
नफरत झंझट-झूठ स्यूं, गम्यो न वाद-विवाद | आंचलियै री आसथा, 'चम्पक' आसी याद ||५||
१६२ आसीस
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