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सत्य है। उसका एक प्रामाणिक फलित है, मोहन के खमत खामणा।
हम सालासर के लिए चले। रास्ते में हर मील के पत्थर पर बैठ-बैठकर विश्राम लिया। एक आध जगह उजले धोरे पर भी बैठे। हर बार आज कुछ न कुछ नया निर्देश आता रहा । कुछ पुराने संस्मरण और कुछ करणीय कार्यों की हिदायतें दीं। एक बार मुझे वचनबद्ध कर शिक्षा फरमाई। ___ इस अवधि में मैंने स्वप्न को जानने का प्रयत्न किया। पर एक ही जमाजमाया उत्तर रहा, तुम्हें नहीं, आचार्यश्री से मिलने पर अर्ज करूंगा।
मृगसर शुक्ला द्वादशी सोमवार को हम सालासर रहे। भाईजी महाराज ने दाढ़ी का लुंचन करवाया । दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा-'सालासर के बाबा ! तेरी संकलाई सही, अब लोच नहीं आयेगा।' उन दिनों नाक पर एक फुसी थीभाईजी महाराज ने मूंछ का बाल खींचते हुए कहा- लगता है यह फँसी मुझे लेकर ही जायेगी ! हम सबको लोच करा लेने का आदेश हुआ। सबके लुंचन हुए, केवल शान्ति मुनि बाकी रहे। मैंने कहा-हाथ दुःखने लग गये हैं, इनका लोच भी बड़ा है, कल कर लें तो कैसा रहे ? मुनिश्री ने फरमाया-थोड़ा समझो ! कल तुम्हें फुर्सत नहीं मिलेगी। पर हम नहीं समझे यह सब क्यों चेताया जा रहा था। शान्ति मुनि का लुंचन हुआ, वन्दना की। भाईजी महाराज जरा मुलक कर बोले-अच्छा किया, देखो! तुम्हें मेहनत तो पड़ी पर कल समय नहीं मिलेगा, मैं ठीक कहता हूं।
रात को रक्तचाप बढ़ा । तबीयत खराब हुई । सन्तों ने सालासर ही रुकने का निवेदन किया। भाईजी महाराज बोले- नहीं, मुझे आचार्यश्री से पहले लाडनूं पहुंचना है। चलना ही होगा।
लाडनूं के स्वयंसेवक आये । पूरी धर्मशाला का स्थान निरीक्षण किया। व्यवस्था समझाई । सन्त यहां रुक सकेंगे। आचार्यप्रवर का विराजना यहां ठीक जमेगा । जनता के बैठने का स्थान यहां उपयुक्त बैठेगा। स्वयंसेवकों से बात करते-करते भाईजी महाराज धर्मशाला के दरवाजे के बाहर पधार गये और आवाज दी--सन्तों ! मैं तो चलता हूं। तुम उपकरण लेकर आ जाना।
हमने विहार किया। अभी सालासर पानी की टंकी तक ही नहीं पहुंचे थे कि सांस फूल गया । दुकान की बेंच पर बैठे, फिर चले । पर चला नहीं जा रहा था। समुद्र के किनारे तक धरती नापने वाले पांव आज पांच मील का रास्ता काटते जवाब दे गये । कलकत्ता से बम्बई और पंजाब से मद्रास तक चलने वाले कदम आज क्यों थके, पता नहीं। जो साहस दंडकारण्य और विध्य की घाटियां पार करते नहीं टूटा, वह आज विश्वास छोड़ने लगा । ऊटी जैसे आठ हजार फीट की ऊंचाई चढ़ते तो दम नहीं फूला, वह आज अपनी जन्मभूमि की कांकड में आकर फूलने लगा। भाईजी महाराज दस-बीस कदम चलते-बैठते फिर चलते फिर बैठते । बार
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