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निछरावल
मैं कवि कोनी, पण कवियां रै बिच में ऊऊं बैठूं कविता रा खरड़ा 'रु खलीता, खोलूं और लपेटू भावां री छोलां मैं फिर-फिर लिखूं, समेटू, मेटू शब्दां रौं तलपेटी ढेर, उधेड़-उधेड़ पलेटू
छंद न जाणूं, बंध न जाणूं, सन्ध न जाणूं भाई ! तिखो तिखो जोड़, मसां-सी एक छांनड़ी छाई 'चंपक' नूआं - जूनां भवियां कवियां-हिये-हार-सी आतम दरसण करण बर्णला, आ'आसीस' आरसी ।
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सेवाभावी 'चम्पक'
असल बात
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