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कृतघ्न कुण?
सागर ! घृणित कृतघ्न सो, अधम पाप अभिमान । अपणा तूं अपणत्व स्यूं, गरड़ा, दर्दी, ग्लान ॥१॥
अमरबेल सो कृतघनी, सागर ! गुणनै भूल। पल जकै ही पेड़ स्यूं, पड़े अन्त प्रतिकूल ॥२॥
सागर ! जो गूण भूलकर, झाल झूठो झोड़। तो उलंठ शठ ऊंठ नै, खलै ऊंठ री खोड़ ॥३॥
छिद्रान्वेषी छिबकली, मीठो मूडै मित्र । सागर ! दीसै शान्त पर, आदत बड़ी विचित्र ॥४॥ सागर ! छिद्रान्वेषियो, मीठो फल किंपाक । रंग रूप रो फूटरो, तोडै कंठ तड़ाक ॥५॥
२४ आसीस
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