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जेट की जेट कच्ची
मुनि वसन्तलालजी (पेटलावद) श्री भाईजी महाराज के पास १७ वर्षों से थे। वैसे उनका स्वभाव भोला था। सेवा का गुण और प्रकृति मिलनसार थी। वे बालोतरा मर्यादा महोत्सव शताब्दी पर मुनिश्री के पास आये और रोने लगे। भाईजी महाराज ने पूछा-क्या बात है ? वे कुछ बोल नहीं पाये। इतने में उनके संसार पक्षीय पिता मुनि जड़ावचन्द जी पहुंचे । वे कहने लगे-भाईजी महाराज ! आपकी बडी कृपा रही है। आप बड़े हैं । आपके हाथ लम्बे हैं । मेरा निभाव किसी तरह हो जाए, आपको कृपा करानी पड़ेगी। बुढ़ापे में सहयोग के बिना कैसे पार पड़े ?
__ भाईजी महाराज ने फरमाया-जड़ावजी ! निश्चित रहो। संघ में सब का निभाव होगा। तुम्हारे निभाव के लिए ही तो गुरुदेव ने दया कर तुम्हारा सिंघाड़ा किया है। जबकि हम सब जानते हैं, सिंघाड़े की योग्यता तुम्हारे और मेरे में कितनी है ? निभाव सन्तों के सहयोग से होगा । संत निभाओ । प्रकृति को बस में करो।
वे बोले-निभाव के लिए ही तो आपसे अर्ज करता हूं।।
भाईजी महाराज ने फरमाया-निभाव तो गुरु देव करवायेंगे। रास्ते-रास्ते चलो, निभाव सबका हो रहा है, होगा।
वे बोले-वसन्तीलाल जी स्वामी को मेरे साथ भेजने की कृपा कराओ । इनके बिना मेरा निभाव नहीं होता। गुरुदेव ने फरमाया है-पहले चम्पालाल जी स्वामी से पूछो। __भाईजी महाराज ने कहा-यह तो आचार्य देव की कृपा है । वसन्तलाल मेरा नहीं है, गुरुदेव का है। उन्होंने मुझे दिया, मेरे पास है । तुम्हें दिलाये, तुम्हारे साथ हो जाएगा। पर इससे पूछा है ? इसका क्या मन है ? ___ वसन्तलालजी बोले—मेरा मन जाने का है । आखिर मेरे पिता हैं। ये कहते हैं-साथ चलो, वरना मेरा निभाव नहीं होगा । इनका मन कमजोर हो गया है । ३१२ आसीस
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