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वे भाईजी महाराज थे
वि० सं० २०१३ का मर्यादा महोत्सव ! तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह की योजनाएं बन रही थीं। एक अन्तर गोष्ठी में कलात्मक-पक्ष उजागर करने तेरापंथ-संघ के कलाप्रिय साधु-साध्वियों को बुलाया गया। दो सौ साल के तेरापंथ इतिहास को चित्रांकित करना निश्चित हुआ। मुनि दुलीचंद जी (पचपदरा) और मुझे (श्रमणसागर) कार्य सौंपा। श्री भाईजी महाराज सहर्ष मुझे कार्य-मुक्त करने को राजी हए। प्रोत्साहन दिया। मैं २०१४ का चातुर्मास चूरू करने मुनिश्री चम्पालालजी (मीठिया) के साथ गया । हमने रात-दिन एक कर चित्रकार खेमराज रघुनाथ शर्मा (नाथद्वारा) के सहयोग में भिक्षु-चित्रावली बनायी। मंगलचन्दजी सेठिया (चूरू) ने इस कार्य में पूरी दिलचस्पी ली। कुछ कारणों से कार्यावरोध आया। मैं फिर आचार्यप्रवर की बंगाल-यात्रा में साथ चला गया।
हमारा अपना लक्ष्य चालू था । गति भले ही मंद रही हो, पर नयी-नयी कल्पनाएं उठ रही थीं। तेरापंथ संघ का 'कला दर्शन' प्राणवान् बने हमारा ध्येय था। सुजानगढ़ की बात है। मैं शौचार्थ गया। वहां एक विशाल काले सांप की साबत कांचली देखी। मन इहितास के झूले में झूम उठा । मेवाड़ केलवे की अंधेरी ओरी के मंदिर में तत्कालिक मुनि भारीमालजी स्वामी के पैरों में सांप ने आंटे लगाये थे । स्वामीजी ने मंगल-मंत्र सुनाया, सांप ओरी छोड़ चला गया। क्या उस दृश्य को चित्रांकित करते इस सांप की कांचली को भारीमालजी स्वामी के पैरों में सांप के आंटों की जगह उपयोग में लिया जा सकता है ? ऐसा हो सके तो एक जीवन्त दृश्य बन जायेगा। इसी परिकल्पना में मैं वह कांचली ले आया। छुपे-छुपे योजना की क्रियान्विति में उस सर्प-केंचुली में मैंने धीरे-धीरे सावधानीपूर्वक सूखा नरम-नरम घास भरा। फण में रुई जचायी। अब वह ठीक मोटे असली सांप कीसी शक्ल में दिखने लगा। मैंने कुतूहल-कलावश उसे एक काष्ठ-पात्र में कुंडली की
संस्मरण २७६
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