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प्रेम की एक कड़ी
पराये का अनादर सह लेना आसान है, पर अपने वाले का जरा-सा भी अनुचित व्यवहार पहाड़ बन जाता है । २५वीं भगवान महावीर-निर्वाण-शताब्दी का अवसर था। आचार्यप्रवर दिल्ली पधारे । व्यवस्था समिति के सदस्य व्यवस्था में जुटे । एक दिन अर्थ-संग्रह करते कुछ वरिष्ठ सदस्य एक दुकान पर पहुंचे। वह भाई पहले ही उफणा हुआ था। समाज के सदस्यों को देख भड़क उठा। आदर-सत्कार तो गया कहीं । वह उलटा-पुलटा बोल पड़ा। चले जाओ यहां से, भिखारी। जो शब्द नहीं बोलने चाहिए थे, बोल गया । बोला ही नहीं उन्हें दुकान से उतार दिया।
खिन्न होकर आये सदस्यों ने जब भाईजी महाराज के दर्शन किए तो उन्हें उदास-उदास देख मुनिश्री ने पूछा-आज ऐसे कैसे?
एक भाई ने बीती बात बताते हुए कहा-मत पूछो मुनिश्री ! ऐसा अपमान तो शायद एक विरोधी-शत्रु भी अपने घर आए का न करे, वैसा किया आपके भगत ने। उन्होंने सारी घटना बतायी। सुनकर भाईजी महाराज के मन पर प्रतिक्रिया हुई । सामने वाला आदमी समझदार था। कट्टर तेरापंथी, आज का नहीं पीढ़ियों का । वह भी मुखिया परिवार का । रोज आने वाला, लगनशील । इतना ही नहीं, कहना तो यों चाहिए, खुद व्यवस्था करने वाला। फिर भी यह सब क्यों हुआ? बात जची नहीं।
वह भाई आया । मुनिश्री को तो पूछना ही पूछना था। वहां तो नगद व्यापार था, उधार का क्या काम ? बेचारा बोले भी तो क्या ?
भाईजी महाराज ने फरमाया-भोले! समाज के भाई का तिरस्कार ? अनादर ? अपशब्द ? कल कौन आएगा तेरे घर ? समाज के बिना सामाजिक प्राणी का काम चलता है ? भूल का प्रायश्चित्त केवल अनुताप से नहीं होता। व्यवहार परिष्कार मांगता है। तुमने यह गलती की तो कैसे की? सुन !
संस्मरण ३२१
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