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हल्दी-दूध
क्या कभी स्वार्थ का त्याग दिये बिना परार्थ सधता है ? उसकी पीड़ा अपनी पीड़ा है, यह आत्म-भाव ही तो संघीयता है । त्याग पराग है । औरों का सहयोग कर जताओ मत । प्रशंसा की भूख पुण्य - निर्जरा का नाश कर देती है । हम-दर्द बनते सिर-दर्द हो तो हो । काम करने के बाद तख्ती को धो डालो। कुछ करके गिनाने वाला अपने आपको गिराने वाला होता है ।
भाजी महाराज ने बताया - बचपन में मैं एक बार दुलेछी के दासे पर चलतेचलते गली में गिर गया। मां ने मुझे हल्दी डालकर गरम दूध पिलाया । मैं ठीक हो गया । कुछ दिनों के बाद मेरे साथ एक लड़के की कुश्ती हुई । मैंने उसे धर पटका । वह चित् हो गया । उसके पैर में चोट आई। उससे उठा नहीं गया । मैं दौड़ा | घर से एक गिलास गरम दूध और हल्दी लाया । उसे पिला दिया ।
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मां व्याख्यान सुनकर आयी । देखा, दूध कम है- -क्या बात है ? पूछताछ की। मैं बोला- मैं ले गया। मां ने कहा- क्यों ? मैंने बताया- - लड़का गिर गया था, उसके चोट आई थी । दूध-हल्दी पीने से वह ठीक हो जाएगा । उसके घर दूध-हल्दी कहां है मां ?
मां ने कहा- पर तुम बिना पूछे कैसे ले गये ? दूध कम होने का बहम कितनों पर जाता ?
मैं गम्भीर हो गया । गलती का अहसास हुआ। मुझे अनबोल देख मां ने कहाकल तुम्हें दूध नहीं मिलेगा ।
बात खतम हुई । दूसरे दिन मनुहारें करने पर भी मैंने दूध नहीं पिया | दादाजी को पता चला। उन्होंने मुझसे कारण पूछा । मैंने आपबीती बतायी। शाबासी भी मिली और हिदायत भी मिली। दादाजी ने अपने कटोरे में से मुझे दूध पिलाया और कहा - 'काम पूछकर करो, कर लिया हो तो बाद में कह दो ।'
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संस्मरण १६७
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