________________
और काम का मुझे शौक था। __लाडनं निवासी बोरड डालमचन्दजी 'कमलपुर' रहा करते थे। वे धर्म-ध्यान और तत्त्व-चर्चा के रसिक थे। खुशदिल, सज्जन-स्वभावी, साहसी, कुशल व्यवसायी और विनोदप्रिय । वे सिराजगंज आये। मेरी ग्राहक पटाने की कला ने उन्हें आकर्षित किया। वे मुझे मांग कर कमलपुर ले गये।
डालमचन्द जी का बड़ा पुत्र बालचन्द उन दिनों कमलपुर में ही था। हम दोनों बराबरी की-सी उमर के थे। घरेलू व्यवहार में बालचन्द और चम्पालाल में कोई भेद नहीं था काम-काज पूरा कर लेने के बाद हम दोनों साथ-साथ खेलते।।
हम दोनों एक दिन खेल रहे थे। लगने-पड़ने का डर था ही नहीं। कभी दरखतों पर चढ़ते, कभी दीवार फांदते । आज न जाने हमें क्यों सूझी, वहीं पिछवाड़े एक कुआं था। हमने शर्त लगायी-भागते-भागते आओ और छलांग लगाकर कुएं को डाको। पहल मैंने की । मैं छलांग मारकर कुआं डाक गया । बालचन्द कुआं डाक रहा था, पैर सही नहीं जमा । वह फिसल गया। कुएं में गिर ही रहा था कि मैंने दौड़कर थाम लिया। वह गिरते-गिरते बचा । थोड़ी-सी रगड़ आयी। दोनों के मुंह सफेद पड़ गये । हमने किसी को पता नहीं लगने दिया।
बालचन्द आजकल नयी-पुरानी धारणा में उलझा हुआ है। अच्छा समझदार, तत्त्व-ज्ञाता, बोल-थोकड़ों का माहिर और समझने,-समझाने की हटौती (अभ्यासशक्ति) वाला होकर भी नहीं समझ रहा है। मैंने कई बार प्रयत्न भी किया है। मित्रता के नाते कड़ा भी कहा है, पर अभी उसके गले बात उतर नहीं रही है। हर बार वह कहता है-मुनिश्री ! आपने उस कुएं से तो हाथ पकड़कर उबार लिया, पर इस कुएं से बचाना मुश्किल है। क्योंकि मेरी धारणा अभी इसे कुआं मानने को भी तैयार नहीं है । और मैं उसे कहता हूं-यह भयंकर कुआं है बालू । अनन्त जन्ममरण बढ़ाने वाला कुआं, और वह यह कहकर टाल देता है
'बी कुएं पड़तां नै राख्यो, हाथ झाल प्रेमाल । अब पकड़ काढ़ौ तो जाणूं, रोज कहै औ बालू ।।'
संस्मरण २११
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org