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________________ परेशानी न हो। __ मैं अब तक मौन, नीचा सिर झुकाए, जमीन कुरेद रहा था । मुझे अनबोल देख, भाईजी महाराज ने मेरी पीठ पर हाथ रखा। प्रेम से सहलाते हुए फरमाया—यह कोई तुम्हारे पर आरोप थोड़ा ही है । तुम डर क्यों गए? जो होना होता है उसे कोई रोक नहीं सकता। तुम्हें जो पता हो वह बता दो । लगता है, उसके पैर उखड़ गए हैं। वह संघ छोड़कर भाग गया है, कायर' कहीं का। मैं इस घटना से सर्वथा अनभिज्ञ था। रात-दिन साथ रहने वाले साथी के विषय में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती। मैंने कांपते स्वरों में कहा-सच-सच तो यह है कि मुझे कोई पता नहीं है, पर मेरी इस ईमानदारी की बात को कोई मानेगा ? मैं बोलकर क्या करूं?' । भाईजी महाराज ने मुझे आश्वस्त करते हुए फरमाया--देख, औरों को विश्वास हो न हो, पर मुझे तो प्रतीत है। मेरे सामने तूने कभी गलत बात नहीं की। मैं मानता हूं तेरी चलती बात का लहजा ही कुछ और होता है । पर, यह हुआकैसे ? अकल्पनीय, अचिन्त्य'' 'कहते-कहते मुनिश्री गंभीर हो गए। दीक्षित होकर प्रारम्भ से ही पुष्पराज जी भाईजी महाराज के पास ही रहे थे। उनका सारा संस्कार-निर्माण मुनिश्री के हाथों से हुआ था। अपने हाथ से पाले-पोसे पौधों को यों अप्रत्याशित जड़ें छोड़ते देख, मन में आना स्वाभाविक था । उसमें भी भाईजी महाराज जैसे वात्सल्य प्रधान, दयार्द्र-हृदयी के लिए और भी दुसह्य था। बीस साल का हमारा अपना सान्निध्य, अन्तरंग एकत्व, आज अनबोले ही टूट गया था । टूट गया था या जान-बूझकर तोड़ दिया गया था । पर खेद तो इस बात का हो रहा था कि बिना किसी पूर्व सूचना, सन्देह के एक तूफान आया और सहसा सब कुछ उड़ाकर ले गया। प्रातः से सायंकाल तक एक साथ रहने, बैठने, बोलने और कार्य करने वालों को इतना-सा भी सुराख न लगे, यह अवश्य सन्देहास्पद था, पर जो यथार्थ था, वह सही था। मुझे किसी भी तरह का न तो पता ही था और न सन्देह । भाईजी महाराज के मन की प्रतिक्रिया एक दोहे के माध्यम से यों निकली-.. 'ओ कांटो कदस्यूं उग्यो, अरे! फूटरा फूल ! 'चम्पक' होकर चतुर क्यं, गई विधाता भूल ?' मन को खटकती हुई तीव्र वेदना शब्दावली में फूल के मिस उभरी । अक्सर भाईजी महाराज पुष्पराज के स्थान पर फूल का सम्बोधन करते थे। पुष्प और फूल एकार्थक जो हैं। ३०४ आसीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003057
Book TitleAasis
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages372
LanguageMaravadi, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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