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सोरठा
ॐ अरिहन्त अकर्म, सिद्ध सन्त गुणवन्त शुभ । केवलि-भाषित धर्म, 'चम्पक' लै शरणो श्रमण !।१॥
अवसर रो अहसान, भूल्यो नहिं जावै भलो। जो चावै सम्मान,(तो)'चम्पक' सज्जन बण श्रमण !॥२॥
अहंकार आवेश, 'चम्पक' दानी-देश में। तेस-मेस अवशेष, करै सुजस-रस रो श्रमण ?।३॥ आ मत आप बार, तूं विनोद की बात मैं। 'चम्पक' तज तकरार, तर्क छोड़ सुगणां श्रमण !।४॥
आंख्यां उगलै आग, अगल-डगल बोलै विकल । तेजी 'चम्पक' त्याग, शान्ति राख सुपालै श्रमण !।५।।
इला इमारत इल्म, 'चम्पक' मौकैसर मिलै । फेर न उतरै फिल्म, समय नीसर्यां स्यूं श्रमण !।६॥ इकतरफो इकरार, निभै न दुनिया रो नियम । तेजी तज तकरार, 'चम्पक' सट सलटा श्रमण !७॥ इकतारी इकसार, आखी अण्यां अराधले । 'चम्पक' नै सरदार, शोभै श्रीसंघ मै श्रमण !।।
इक्कै रो इजलास, 'चम्पक' विलखो बादशाह । तेज बतावै तास, संघ संगठन रो श्रमण !।६।।
__ श्रमण-बावनी ८६
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