________________
४१
कविता कब से ?
२००८ माघ शुक्ला अष्टमी को सरदारशहर की विशाल जनसभा में 'धर्म और समाज' विषय पर वक्ताओं के भाषण हुए। मर्यादा - महोत्सव की वह भारी भीड़ । दूर-दूर से आने वाले हजारों-हजारों यात्री । आचार्यप्रवर के उपसंहारात्मक प्रवचन के तुरंत बाद भाईजी महाराज खड़े हुए और बोले एक बात मैं भी कह दूं । इन मंजे हुए विचारकों के चिन्तन के बाद मेरा बोलना है तो अटपटा-सा, पर जहां संघ मिलता है, विचार करता है, वहां हर सदस्य को अधिकार होता है अपनी बात कहने का । मैं ज्यादा कुछ नहीं जानता । मैंने तो इतना ही समझा है— धर्म के बिना समाज केवल भीड़ है और समाज के बिना धर्म केवल पुलिन्दा है । समाज शरीर है, तो धर्म प्राण है । प्राण के बिना शरीर सड़ जाता है और शरीर के बिना प्राण टिकते नहीं । जब धर्म और समाज दोनों मिलते हैं तब बनता है धर्म-समाज | धर्म-समाज में क्या होता है, क्या होना है, यह चिन्तन का विषय है आचार्यों का, धर्म-समाज के नेताओं का। मेरी तो सलाह है सभी वक्ताओं और श्रोताओं से, उलझो मत
'अणहोणी होसी नहीं, होसी जो होणी, मनमानी ताणों मती, सुगुरु दृष्टि जोणी ॥ धर्म-विहीन समाज के, ठप समाज बिनधर्म स्वर - व्यंजन-सी एकता, 'चम्पक' समझ्यो मर्म ॥
तत्काल छन्दों में बांधे हुए ये दो तुक्के तीर का सा काम कर गए। आचार्य प्रवर ने फरमाया सारे सिद्धान्तों का सार बता दिया चम्पालालजी स्वामी ने । अच्छा, आशु कविता भी करते हैं आप ? यह कब से ?
२६६ आसीस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org