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पगडंडी का रास्ता
हमने एक गांव से विहार
।
गांव का नाम तो मैं भूल गया पर मेवाड़ की घटना है । किया । सड़क सड़क चल रहे थे। सड़क भी कच्ची थी रास्ता मगरी ( पहाड़ियों) का था। थोड़ी दूर चले कि एक घुमाव पर हमने अपने आगे चलने वाली मुनिमंडली को देखा । ऐसा लगा कि बहुत घुमाव है । इधर-उधर देखने पर एक पगडंडी दिख पड़ी । वह बहुत साफ तो नहीं थी, पर थी चालू । सन्तों ने भाईजी महाराज से कहा - मोटा पुरुषां ! सड़क तो बहुत घूम रही है । यह पगडंडी का रास्ता सीधा निकलेगा ।
दो क्षण रुककर मुनिश्री ने फरमाया - ना भाई ! ना, शकुन रोक रहे हैं, यह रास्ता गलत होना चाहिए। हम सड़क सड़क आगे बढ़े। कोई दस कदम भी नहीं चले होंगे, मुनिश्री ने फरमाया- लगता है पीछे वाले सन्त कहीं भटक जाएंगे, अतः पगडंडी पर निषेध चिह्न (क्रोस) तो कर दो। आपने अपने गेड़िये से क्रोस का चिह्न कर दिया । घुमाव के उस छोर पर जाकर हमने देखा तो पिछले सन्त हमारी उसी पगडंडी को देख रहे हैं । जो हमारे मन में आई उनके भी आई होगी । उन्होंने निषेध -चिह्न की परवाह न कर, पगडंडी ले ली । मुनिश्री ने दूर से बहुत संकेत किए पर वे उन्हें उलटा ही लेते गये ।
उनके कदम शीघ्र गति से मार्ग तय कर रहे थे। दो मिनट के बाद तो वे हमें दीखने से ही रहे । वे चाहते थे, हम भाईजी महाराज को पीछे छोड़, आगे पहुंच जाएं। उन्होंने गति को और बढ़ा दिया । जवानी के दिन थे, पैरों में ताकत थी । बिना इधर-उधर देखे, वे अपनी धुन में चलते ही गये । मीलों का रास्ता तय कर लिया पर अभी मूल सड़क नहीं आयी । आती कैसे ? सड़क उस पहाड़ी से पूर्व की ओर मुड़ गई । वे भले आदमी अपनी मस्ती में पगडंडी पर चलते ही चले । पगडंडी पश्चिम की ओर घूमती गई। अगली टेकरी पार करने पर उनके सामने एक सूखी
संस्मरण २६७
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